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________________ १२४ कर्मप्रकृति विशेषार्थ-यह अल्पबहुत्वप्ररूपणा दो प्रकार से होती है- १. अनन्तरोपनिधा और २. परंपरोपनिधा रूप से। इनमें से पहले एक षट्स्थानक में अन्तिम स्थान' से प्रारंभ करके पश्चानुपूर्वी से अनन्तरोपनिधा द्वारा प्ररूपणा करते हैं-- - अनन्तगुणवृद्धि रूप स्थानों को आदि में करके शेष स्थानों को असंख्यात गुणित कहना चाहिये । जैसे अनन्तगुणवृद्धि वाले स्थान सबसे कम हैं, क्योंकि उनका प्रमाण एक कंडक मात्र है । 'उनसे असंख्यातगुणवृद्धि वाले अनुभागबंधस्थान असंख्यात गुणित होते हैं। प्रश्न-यहाँ गुणाकार क्या है ? उत्तर-कंडक और एक कंडकप्रक्षेप । प्रश्न-यह कैसे जाना जाता है ? उत्तर-यहाँ क्योंकि एक-एक अनन्तगुणवृद्धि वाले स्थान के नीचे असंख्यातगुणवृद्धि वाले अनुभागबंधस्थान कंडक प्रमाण प्राप्त होते हैं, इसलिये कंडक का गुणाकार कहा गया है तथा अनन्तगुणीवृद्धि वाले अनुभागबंधस्थान से कंडक के ऊपर कंडक मात्र असंख्यातगुणीवृद्धि वाले स्थान प्राप्त होते हैं, किन्तु अनन्तगुणीवृद्धि वाला अनुभागबंधस्थान प्राप्त नहीं होता है, इसलिये उपरितन कंडक का अधिक प्रक्षेप किया गया है। उससे भी असंख्यातगुणीवृद्धि वाले स्थानों से संख्यातगुणीवृद्धि वाले स्थान असंख्यात गुणित होते हैं। उनसे भी संख्यातभाग अधिक वृद्धि वाले अनुभागबंधस्थान असंख्यात गुणित होते हैं । उनसे भी असंख्यातभाग अधिक वृद्धि वाले अनुभागबंधस्थान असंख्यात गुणित होते हैं । उनसे भी अनन्तभागवृद्धि वाले अनुभागबंधस्थान असंख्यात गुणित होते हैं । गुणाकार सर्वत्र ही कंडक और उसके ऊपर एक कंडक-प्रक्षेप है । वह इस प्रकार कि एक-एक असंख्यातगुणवृद्धि वाले स्थान के नीचे पूर्व संख्यातगुणवृद्धि वाले स्थान कंडक मात्र प्राप्त होते हैं । इसलिये कंडक गुणाकार है । असंख्यातगुणीवृद्धि वाले कंडक से ऊपर कंडक प्रमाण संख्यातगुणीवृद्धि वाले अनुभागबंधस्थान प्राप्त होते हैं । तदनन्तर असंख्येयगुणाधिक नहीं किन्तु अनन्तगुणीवृद्धि वाला ही अनुभागबंधस्थान होता है । प्रथम अनन्तगुणीवृद्धि वाले स्थान से नीचे असंख्यातगुणीवृद्धि वाले स्थानों की अपेक्षा संख्यातगुणोवृद्धि वाले स्थानों का विचार किया जाता है, उससे ऊपर वाले स्थानों का नहीं। इसलिये ऊपर एक ही अधिक कंडक का प्रक्षेप किया गया है। इसी प्रकार संख्यातभागवृद्धि आदि अनुभागबंधस्थानों का भी असंख्यात गुणित करने में गुणाकार की भावना जानना चाहिये । १. यहां पर मूल छह वृद्धि की अपेक्षा होने से अन्तिम स्थान छठा अनन्तगुणवृद्धिरूप स्थान जानना चाहिये, परन्तु सर्वांतिम जो अनन्तभागाधिक स्थान है, वह नहीं। इसीलिये पश्चानुपूर्वी के क्रम का यहां संकेत दिया है। २. उक्त कथन का आशय यह है कि कंडक से गुणा करने पर प्राप्त राशि में एक कंडक को जोड़ना चाहिये।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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