SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 265
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भिक्खु दृष्टांत वंदना की, तब भगवान ने छह वाक्य कहे-उसमें एक वाक्य है-'जीयमेयं सूरियाभा' इसका अर्थ है-'तुम वंदना करते हो, यह तुम्हारा 'जीत'-कल्प या आचार है।' ___ 'कोई पूछता है-"जीय" शब्द सूत्र में हैं; आप फिर 'जी' एक ही अक्षर कैसे कहते हैं ?' "इसका उत्तर--'जी' यह एक अक्षर 'जीय' शब्द का एक देश (अंश) है । देश के कहने में कोई दोष नहीं है। सूत्रों में 'वचन' के लिए कहीं तो पाठ 'वयण' आता है, और कहीं 'वय' आता है । यह भी वचन शब्द का वाची है। धर्मास्तिकाय के लिए कहीं तो 'धम्मत्थिकाय' पाठ आता है और कहीं 'धम्माधम्मे आगासे' अर्थात् केवल 'धम्म' शब्द का प्रयोग होता है । यह भी धर्मास्तिकाय का एक देश है। इसी प्रकार 'जिय' इस पाठ का 'जी' एक देश है । इसके प्रयोग में कोई दोष नहीं है। २६७. सपूत और कपूत बेटे स्वामीनाथ ने कहा-"धर्म तो दया में है।" तब कुछ हिंसाधर्मी बोले- "दया-दया क्या पुकारते हो ? दया 'रांड' घूरे में पड़ी लौट रही है।" तब स्वामीजी ने कहा- "दया तो 'माता' कही गई है। उत्तराध्ययन सूत्र (अ० २४) में आठ प्रवचन माताएं कही गई हैं। उनमें दया समाविष्ट है । जैसे किसी साहूकार ने आयुष्य पूरा किया। पीछे उसकी पत्नी रही। जो सपूत होता है, वह अपनी माता का यत्न करता है और कपूत होता है, वह अपनी माता के लिए अंट-संट बोलता है, माता को 'रंड्कार' की गाली बकता है। इस प्रकार दया के पति तो भगवान थे; वे मुक्ति चले गए। पीछे जो साधु मौर श्रावक सपूत हैं, वे दया माता का यत्न करते हैं और जो तुम्हारे जैसे कपूत प्रगटे हैं वे उसके लिए रंड्कार की गाली का प्रयोग करते हैं।" ___ २६८. 'चौधराहट में तो खींचातान बहुत है' साधुपन स्वीकार कर उसे नहीं पालते और साधु का नाम धराते हैं, इस पर स्वामीजी ने दृष्टांत दिया-'एक खरगोश के पीछे दो बघेरे दौड़े। खरगोश भाग कर अपनी खोह में घुस गया। आगे वहां लोमड़ी बैठी थी। उसने पूछा-तेरा सांस धोंकनी बन रहा है, तं दौड़े-दौड़े क्यों आया ? खरगोश चालाक था । वह बोला-'जंगल में जानवर इकट्ठे होकर मुझे चौधराहट दे रहे थे। पर मैं उसे स्वीकार नहीं करना चाहता था; इसलिए भाग कर यहां आ गया हूं।' तब लोमड़ी बोली-'चौधराहट में तो बड़ा स्वाद है।' तब खरगोश बोला-'तेरा मन हो तो तू उसे स्वीकार कर ले । मुझे तो नहीं चाहिए। तब लोमड़ी चोधराहट लेने बाहर निकली। बाहर दोनों बघेरे खड़े थे। उन्होंने उसके दोनों कान खींच लिए । तब लहूलुहान होकर वापस भीतर आई। तब खरगोश ने पूछा-वापस क्यों भाई ?
SR No.032435
Book TitleBhikkhu Drushtant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya, Madhukarmuni
PublisherJain Vishva harati
Publication Year1994
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy