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________________ २३५ दृष्टांत : २९६ I तब वह बोला- 'रे मूर्ख ! परसों तो अकेला तांबा था, वह ठीक है । कल अकेली चांदी थी, वह और अधिक ठीक है । वे दोनों अलग-अलग थे । इसलिए नकली नहीं पर इसमें भीतर तांबा और ऊपर चांदी का झोल हैं; इसलिए यह खोटा है। यह किसी काम का नहीं । इस दृष्टांत के अनुसार पैसे के समान गृहस्थ साधु होता है और नकली रुपये के समान वेषधारी होता साधु का और भीतरी लक्षण गृहस्थ का । वह खोटे सिक्के जैसा होता है-वह न गृहस्थ में और न साधु में, किन्तु 'वघेरा' जैसा होता है । श्रावक प्रशंसा के योग्य और आराधक होता है । साधु भी प्रशंसा के योग्य और आराधक होता है । पर खोटे सिक्के के साथी वेषधारी आराधक नहीं हैं । वह वंदना के योग्य नहीं होता । श्रावक होता है, रुपये के समान है, जिसका बाहरी वेष तो २६६. आप 'जी' क्यों कहते हो ? किसी ने कहा-टोले वालों को वंदना करने पर वे वंदना की स्वीकृति में कहते हैं- 'दया पालो और कुछ क्षमा-याचना करते हैं । तथा आप 'जी' कहते हैं, इसका कारण क्या हैं ? तब स्वामीजी बोले - " नाथों को नमस्कार करते समय 'आदेश' कहा जाता है, तब स्वीकृति में वे कहते हैं 'आदि पुरुष को' वे स्वयं आदेश को नहीं झेलते; स्वयं में गुण नहीं है इसलिए जो 'आदेश' कहा, उसे 'आदि पुरुष' के प्रति समर्पित कर दिया । गुसाइयों को नमस्कार करते समय 'नमो नारायण' कहा जाता है, तब वे स्वीकृति में कहते हैं 'नारायण' । इसका कारण यह है कि वे कहते हैं 'हममें कोई करामात नहीं है, नमस्कार नारायण को करो ।' वैष्णवों को नमस्कार करते समय कहा जाता है, 'राम राम' तब वे स्वीकृति में कहते हैं 'रामजी', उन्होंने भी नमस्कार को राम के प्रति समर्पित कर दिया, स्वयं नहीं भेला । फकीरों को वंदना करते समय कहा जाता हैं- "सांई साहब", तब वे स्वीकृति में कहते हैं 'साहब', उसने भी नमस्कार 'साहिब' को समर्पित कर दिया । यतियों को नमस्कार करते समय कहा जाता है, 'गुरांजी ! वंदना! वे वंदना की स्वीकृति में कहते हैं 'धर्म लाभ' - 'धर्म करोगे तो लाभ होगा; हमारे भरोसे मत रहना ।' टोले वाले को वंदना करते समय कहा जाता है - 'क्षमा-याचना करता हूं स्वामी ! वंदना करता हूं स्वामी !' वे स्वीकृति में कहते हैं, 'दया पालो' - दया पालोगे तो निहाल हो जाओगे, पर हमें वंदना करने मात्र से तुम नहीं तरोगे । इसका तात्पर्य यह है, वे वंदना को स्वीकार नहीं करते । घर में माल नहीं है तो हुण्डी को कैसे स्वीकारेंगे ? साधुओं को वंदना की जाती है, तब वे कहते हैं, 'जी! तुम्हारी वंदना का हम अनुमोदन करते हैं; तुम्हें धर्म हो चुका । कोई पूछता है - ' जी कहना कहां से आया ?' इसका उत्तर - 'राजप्रश्नीय सूत्र का प्रसंग है। सूर्याभ देव ने भगवान महावीर को
SR No.032435
Book TitleBhikkhu Drushtant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya, Madhukarmuni
PublisherJain Vishva harati
Publication Year1994
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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