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________________ दृष्टांत ११७ ब्राह्मणी के घर जैसा बना दिया । उसके घर में दो रुपये के गेहूं, अठन्नी के मंग और .एक रुपये का घी रख दिया । उसे कहा-जो महाजन आए, उससे पैसे ले, रोटियां बना, उसे खिलाया कर। ___ अब उस गांव में कोई महाजन आता है तो मेर लोग उसे उस ब्राह्मणी का घर बतला देते । एक बार चार व्यापारी बहुत दूर से चलते, थके-मांदे वहां आए। उन्होंने मेरों से कहा-कोई उच्च जाति का घर हो तो बताओ तब उन्होंने ब्राह्मणी का घर बता दिया। व्यापारी आकर बोले-बहिन ! रोटियां बना, हमें परोस । तब उसने गेहूं की मोटी-मोटी रोटियां बना, गाय के घी से चुपड़ा। दाल बनाई, उसमें काचरी डाली। वे व्यापारी खाते समय भोजन की प्रशंसा करने लगे - हमने अमुक गांव की रसोई पकाने वाली स्त्री देखी, अमुक शहर की रसोई पकाने वाली स्त्री भी देखी। बड़े-बड़े शहरों और अनेक गांवों की रसोई पकाने वाली स्त्रियां देखीं, पर ऐसी चतुराई कहीं भी नहीं देखी । दाल कैसी स्वादिष्ट बनी है। उसमें काचरी डालने से वह कैसी स्वादिष्ट बनी है । तब वह ब्राह्मणी बोली-भाई ! काचरी के स्वाद का तो 'तीखण' मिलता तब पता चलता। उन्होंने पूछा- --यह 'तीखण' क्या है ? तब वह बोली-काचरी को छीलने की छरी । तब वे बोले -- छुरी नहीं थी तो काचरी को किससे छीला ? तब वह बोली-दांतों से छील-छील कर वह दाल में डाली है । तब वे बोले--रे पापीनी ! तुमने हमको भ्रष्ट कर दिया । वे थाली को ऊपर से ग्रिने लगे। तब वह बोली-रे भाई ! थाली को तोड़ मत देना । मैं उसे अमुक 'डोम' से मांग कर लाई हूं। ___ व्यापारी बोले-तुम किस जाति की हो ? __तब वह बोली- मैं बनी बनाई ब्राह्मणी हूं। मैं जाति से तो ढेढ हूं । 'मेर' लोगों ने मुझे ब्राह्मणी बनाया। उसने आदि से अंत तक सारी बात सुनाई। भीखणजी स्वामी बोले- इसी प्रकार ये धोवन, पानी और गरम पानी पीते हैं, पर सम्यक्त्व और चारित्र से रहित हैं इसलिए ये बनी बनाई ब्राह्मणी के साथी हैं । ११७. ऐसे हैं भीखणजी कला-कुशल अमरसिंहजी के जीतमलजी ने हेमजी स्वामी से कहा-हेमजी ! भीखणजी स्वामी ने सोजत में चतुर्मास किया था। वहां उनके पास ही अमरसिंहजी के साधुओं ने चतुर्मास किया था। चतुर्मास के प्रारंभ में भीखणजी स्वामी मिश्र धर्म की मान्यता वालों का खंडन करते थे । उन्होंने ऐसा दृष्टांत दिया था--अमरसिंहजी के पुरखे आचार्य रुघनाथ जी, आचार्य जयमलजी के पुरखों को गुजरात से मारवाड़ में लाए थे। तब उनके परस्पर बहुत प्रेम था। दो-तीन पीढ़ी तक वह प्रेम बना रहा। फिर रुपनाथजी,
SR No.032435
Book TitleBhikkhu Drushtant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya, Madhukarmuni
PublisherJain Vishva harati
Publication Year1994
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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