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________________ वरंगचरिउ 83 7. परस्त्री सेवन - परस्त्री सेवन नरक योनि को दिखाने वाला है, यमपुरी के पथ को लाने वाला है। परस्त्री में आसक्ति को व्यक्ति जानता है, जिससे अपयश और अकीर्ति संसार में कही गयी है । अथवा यदि राजा सुनता है तो हाथ, पैर और सिर को हरने की, नष्ट करने की आज्ञा देता है । यदि राजा को ज्ञात नहीं होता है तो कांपते हुए परस्त्री को मनाता है। यदि स्त्री का पति आ जाता है तो उसको मारने का विचार करता है । इतने दुःखों को सहता है और उसको प्राप्त करता है । यदि प्राप्त नहीं कर पाता है तो विरह की आग में जलता है । जैसे-जैसे परस्त्री का मन में ध्यान आता है, वैसे-वैसे कामदेव आता है । स्त्री के आभूषण देखकर रोता है । मनुष्य इन्द्रिय पोषण का लाभ प्राप्त नहीं कर पाता है । जैसे-जैसे स्त्री को अलंकार (आभूषण) में देखता है, वैसे-वैसे कामी अपने मन में रोता है । परस्त्री के वदन (मुख) को देखता है, उसके साथ शरीररमण को करना चाहता है । वह पुण्यविहीन क्या प्राप्त करता है। कर्म के वशीभूत अपनी निधि से हीन होता है। कामी परस्त्री को घूरता है और चित्त में धारण करता है । वह कामी महान पाप को प्राप्त करता है और नरक रूपी वन में नित्य निवास प्राप्त करता है । परस्त्री सेवन की लंपटता में त्रिखण्डपति दशानन रावण विख्यात है, जिसने बलभद्र राम से उनकी पत्नी सीता का हरण किया था । जनार्दन (प्रतिनारायण ) ने जिसका हनन किया और उस रावण ने नरक को प्राप्त किया । द्रोपदी के कारण और भी भयानक बलवान भीम ने कीचक का नाश किया । इसलिए ऐसा जानकर के परस्त्री से स्नेह नहीं करना चाहिए। मन, वचन और काय की शुद्धि पूर्वक अपने मन में संतोष रखना चाहिए । ' रात्रिभोजन त्याग - पापसमूह स्वरूप रात्रिभोजन नहीं करना चाहिए। क्योंकि त्रस - स्थावर जीवों की उत्पत्ति रात्रि में बहुत होती है। जो गृद्धता से रात्रि का भोजन करता है, वह दीर्घ काल तक अनेक भवों (जन्मों) में भ्रमण करता है। किसी भी अवस्था में रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिए, क्योंकि क्या कहूं यह बहु पाप की दशा है। 2 अनछना जल का त्याग - सम्पूर्ण काल में जल (जलगालणु) को छानकर पीना चाहिए । उसके पुण्य में विज्ञान सुख की प्राप्ति होती है। जो भव्य श्रेष्ठ दयावान और पुण्यवान होता है, वह हमेशा घड़े में पानी छानकर रखता है और जीवानी को वही कुएं में छोड़ता है । प्रासुक जल 1. वरंगचरिउ, 1/15 2. वही, 1 / 15
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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