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________________ 82 वरंगचरिउ इस प्रकार दोषों को सुनकर व्रत का नाश करने वाले, ऐसे व्यसनों का मन से त्याग करना चाहिए। 4. वेश्या सेवन-वेश्या कुत्सित मांस और शराब का सेवन करती है एवं मिथ्यावचन नित्य ही कहती है। धनवान कुरूप को भी प्रवेश करवाती है लेकिन निर्धन (अर्थहीन) रूपवान को भी निर्धनता के कारण प्रवेश नहीं करने देती है। एक के साथ रमती है एवं अन्य एक का चिंतन करती है। लज्जितता से रमते हुए व्यक्ति कोढी होता है। वेश्या के अंग रूप के बारे में क्या कहा जाये, विधाता ने उसे पाप के समूह से निर्मित किया है। जो रमण करता है, वह सभी प्रिय स्वामी है। वह निश्चित रूप से कुयोनि को गमन किया करता है। ____5. शिकार-वन में बहुत से जीवों का निवास होता है। तिर्यंचों की अवस्था बहुत ही दयनीय है। निर्दोष प्राणियों को नहीं मारना चाहिए। बेचारे बेजुबान होते हैं, उनको सन्ताप नहीं देना चाहिए। “जो तहं संहारइ पावयम्म, तहि सरिसउ अवरू ण को अहम्मु"। जो उनका पापकर्म से संहार करता है, उसके समान अन्य कोई दूसरा अधर्मी नहीं है। जिस प्रकार गेंद की तरह पृथ्वी का घूमना होता है, वैसे ही चारों गतियों में जीव का भ्रमण होता है। सभी जीव अपने आपको बहुत प्यार करते हैं। उसे अन्य का घात करके गर्व नहीं करना चाहिए। उसकी कुत्सित योनि का प्रारंभ हो जाता है, जो मूर्ख दूसरे जीव का घात करता है। व्यक्ति जैसे अपने आपको सुख में चाहता है, वैसे ही अन्य के प्राणों का भी हरण और संताप न दे, बल्कि सुख प्रदान करना चाहिए। __ इस प्रकार जानकर जीवों की रक्षा करना चाहिए, ऐसा मन, वचन और काय से करने को कहा गया है। 6. चोरी-चोर (तस्कर) सभी लोगों से क्रोधपूर्वक लाभ को प्राप्त करता है, वह घर के मुखिया के सिर का छेदन-भेदन कर देता है अथवा पैर आदि अंगों का भी छेदन कर देता है। दूसरों के धन की चोरी करते हुए उसे दया भी नहीं आती है। चोर के मारते हुए कोई रक्षा नहीं करता है। जो पाप कर्म से परद्रव्य को हरता है, वह भववन में भ्रमण करता रहता है। जैसे दूसरों की लक्ष्मी का अपहरण किया करता है, वैसे वह स्वयं ही अपने आपको अपहरण करता है एवं परलोक के लिए दुःखों का बंध करता है। चोर का कर्म निश्चित रूप से भय का सिंधु है। इस प्रकार मानकर चोरी का त्याग करना चाहिए। 1. वरंगचरिउ, 1/12 2. वही, 1/12 3. वही, 1/13 4. वही, 1/13
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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