SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 81 वरंगचरिउ है। व्यक्ति अपने धन को जुआ में हारता है और दूसरे के धन की वांछा करता है। यहां तक कि अपने घर को भी दांव पर लगा देता है। अपयश और अकीर्ति में पड़ते हुए प्रत्यक्ष देखा जाता है। सत्य का हनन करता है एवं असत्य की भावना रखता है । खेलते हुए दया धर्म का विनाश करता है। हारने पर कटु वाणी (गालियां) बोलता है । अथवा यदि दूसरे के धन को किस प्रकार प्राप्त करूं और साथ ही मद्य-मांस का सेवन भी करता है। धन हारने पर रोता है और परिजनों एवं अपनी पत्नी को भी छोड़ता है। जुआ के कारण राजा युधिष्ठिर सहित पांचों पाण्डव बारह वर्ष तक जंगल में रहे। जुआ से अत्यधिक दुःख को प्राप्त करता है। जुआ में रमण करते हुए अपने नरभव को हारता है। उसके द्वारा अपने आपका ही नाश होता है। अतः यह जानकर जुआ नहीं खेलना चाहिए और मनुष्य जन्म को सार्थक बनाना चाहिए।' 2. मांसाहार - जो मनुष्य गृद्धता से मांस का सेवन करता है, वह अपने आपको दुर्गति में गिराता है। जो जंगल जाकर जाते हुए निर्बल मृग को मारकर खाता है, उसके समान पापी दूसरा नहीं है, न ही प्राप्त किया जा सकता है। जो जिह्वा की लंपटतावश माँस का भक्षण (पलु) करता है, वह कुत्ते के समान जड़ का जड़ है। मांस, गुत्थ, मूत्र और कृमि आदि का अशुभ समूह है और उसी में कलेवर को छोड़ता है, जो किसी से छुपा नहीं है। शुभ मनुष्य दृष्टि भी नहीं डालता है। पापी पापबुद्धि से सदा भक्षण करता है। जो जानकर स्वयं ही छोड़ता है और व्रतों को प्राप्त करता है, वह सुख को प्राप्त करता है । जो मांस की आशा से जीता है और जीवों को त्रास (नष्ट) करता है, वह नित्य ही नरक के निवास को प्राप्त करता है । 2 3. मद्यपान - मदिरा में मत्त व्यक्ति कुछ भी नहीं जानता है । "मइरा मत्तउ किंपि ण याणइ, जणणि-सहोयरि-तिय सममाणइ । मत्तउ मग्गे पडेइ तुरंतउ, सुणहुल्लउ मुहि सवइ सरंतउ ।। " अर्थात् मदिरा में मस्त व्यक्ति माता, बहिन और पत्नी को समान मानता है । मस्त होने पर मार्ग में गिरता है और कुत्ते आकर मुंह में पेशाब करते हैं । मद्य में मस्त होकर किसी की नहीं सुनता है, माता, पिता और बंधुजनों का अपमान करता है। गाता, बकता, नाचता और खिलखिलाकर हंसता है, अपने आपको दुःख सागर में डालता है । व्यर्थ में ही क्रोध रूप अग्नि को धारण करता है, दूसरों को मारता है एवं स्वयं का भी संहार करता है। जीव की निगोदराशि परिपूर्ण है और पाप रूपी वृक्ष निरंतर बढ़ रहा है। मांस और मद्य में कोई भी अंतर नहीं है । अन्य जन्म में निरंतर (हमेशा) दुःख देते हैं । यह नरक का कारण भी है। इस प्रकार जानकर के व्रत को रखना चाहिए। मद्य का सेवन करने वाले को उसे त्याग कर सत्संगति करना चाहिए, क्योंकि 56 करोड़ यादव बली, सुरा में रमणता के कारण यमपुरी को प्राप्त हुए थे । 1. वरंगचरिउ, 1/11 2. वही, 1 / 11 3. वही, 1/12
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy