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________________ 80 वरंगचरिउ पर चारों प्रकार के आहार का त्याग करना उपवास है, पर सभी इन्द्रियों के विषय भोगों से निवृत्त रहना ही यथार्थ में उपवास है। अष्टमी, चतुर्दशी एवं पर्व के दिनों में आरम्भ कार्यों में संवर करें, सप्तमी और नवमी को भव्यजन लालसा छोड़कर एक बार भोजन करें। एक माह में अष्टमी और चतुर्दशी को उपवास करना चाहिए।' साथ ही उस दिन सावद्य कर्मों का त्याग करें और शुभ धर्मध्यान में रत रहें । 3. अतिथिसंविभाग- गुणवान व्यक्ति को घर के दरवाजे पर आये हुए सत्पात्र को पड़गाहना चाहिए। अपनी शक्तिपूर्वक उसे गौरव के साथ मान कषायादि छोड़कर दान देना चाहिए, यही अतिथिसंविभागव्रत है। जो संयम की रक्षा करते हुए विहार करता है अथवा जिसके आने की कोई निश्चित तिथि नहीं है, वह अतिथि है । इस प्रकार के अतिथि को शुभ चित्त से निर्दोष विधिपूर्वक आहार देना अतिथि संविभाग व्रत है। इस प्रकार के अतिथियों को योग्य औषध, धर्मोपकरण, शास्त्र आदि देना इसी व्रत में सम्मिलित है । 4. भोगोपभोग परिमाण–भोग का अर्थ है जो वस्तु एक बार भोगी जाती है। जैसे - आहार -पान, गन्ध-माला आदि एवं जिस वस्तु का बार-बार उपयोग किया जाता है, उसे उपभोग कहते हैं । जैसे-वस्त्र आदि। विषयासक्ति को कम करने के लिए भोग-उपभोग की वस्तुओं का कुछ समय के लिए अथवा जीवन - पर्यन्त के लिए परिमाण करना भोगोपभोग परिमाणव्रत है । भोग के बारे में यह भी कहा कि -"पालियइ कंख भोयहु विरत्तु । "2 अर्थात् इच्छाओं का परिमाण करके संयम का पालन करना एवं भोगोपभोग वस्तुओं का परिमाण करना चाहिए। अपने मन को स्थिर करके भोग-उपभोगों की संख्या सीमित करना चाहिए, जिनसे संवर बढ़ता है, संसार रूपी वृक्ष जल जाता है और सुस्थिर (मोक्ष) पद प्राप्त होता है। सप्त व्यसन पं. तेजपाल द्वारा वरंगचरिउ में व्यसनों का वर्णन विस्तृत रूप से किया गया है। व्यसन का अर्थ है-जिस कार्य को एक बार करने पर भी उचित - अनुचित का विचार नहीं रहता है और पुनः प्रवृत्ति होती है, उसे व्यसन कहते हैं । व्यसन का तात्पर्य बुरी आदतों और बुरे कार्यों से है। जुआ, माँस, मद्य, वेश्या, शिकार, चोरी और परस्त्री सेवन - इस प्रकार ये सात महापापरूप व्यसन हैं । बुद्धिमान पुरुष को इन सबका त्याग करना चाहिए । ' लोक में निंदनीय सप्त व्यसन अग्रलिखित हैं 1. जुआ - जुआ अनर्थ का मूल कारण है। जुआ ( द्यूतक्रीड़ा) अत्यधिक दुःख को देने वाला 1. वरंगचरिउ, 1/16 2. वही, 1 / 16 3. पंचविंशतिकाय, पद्मनंदिकृत, जीवराज ग्रन्थमाला, 1932, अध्याय-6, पृ. 10
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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