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________________ वरंगचरिउ 76 सम्यग्दर्शन आचार्य उमास्वामी सम्यग्दर्शन का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं- सातों तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है।' यही भाव पं. तेजपाल ने भी प्रतिपादित किये हैं । सम्यक् दर्शन के बिना व्रत निरर्थक है और व्रत के बिना मनुष्य जन्म निरर्थक है । अर्थात् दुःखों से स्थायी छुटकारा पाने के लिए सबसे पहले सम्यक्त्व की प्राप्ति करना चाहिए। मुक्ति के लिए सात तत्त्वों पर दृढ़ आस्था का होना सम्यक्दर्शन है और उनका ज्ञान होना ही सम्यग्ज्ञान है। ये दोनों ही आगे बढ़ने की भूमिका रूप हैं । इनके बिना मुक्ति के लिए प्रयत्न करना व्यर्थ है । जिस जीव को इस प्रकार का दृढ़ श्रद्धान और ज्ञान हो जाता है, वह सम्यग्दृष्टि कहलाता है।' अर्थात् उसकी दृष्टि ठीक मानी जाती है। सम्यग्दर्शन को मोक्षमार्ग में कर्णधार (खिवैया) बतलाया है। जैसे नाव को ठीक दिशा में ले जाना खेने वालें के हाथ में नहीं होता किन्तु नाव के पीछे लगे हुए डॉड संचालन करने वाले के हाथ में होता है। वह जहां भी घुमाता है, वहां ही नाव की गति हो जाती है। यही बात सम्यग्दर्शन के विषय में भी जानना चाहिए। इसी कारण जैन सिद्धान्त में सम्यग्दर्शन का बहुत महत्त्व है। इसके बिना न कोई ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है और न कोई चारित्र सम्यक्चारित्र कहलाता है । श्रावकधर्म का प्रतिपादन बारह व्रतों एवं अहिंसा आदि अनेक लक्षणों के रूप में पाया जाता है। श्रावक का अर्थ - श्रावक शब्द तीन गुणों के संयोग से बना है - 1. श्रद्धावान, 2. विवेकवान और 3. क्रियावान। जिसमें इन तीन गुणों का समावेश पाया जाता है, उस व्रतधारी गृहस्थ को श्रावक, उपासक और सागार आदि नामों से अभिहित किया जाता है। वह श्रद्धापूर्वक अपने गुरुजनों, मुनियों के प्रवचन का श्रवण करता है, अतः वह श्रावक कहलाता है । व्रत एक अटल निश्चय है, जब तक मानव व्रत ग्रहण नहीं करता, तब तक उसका मन अस्त-व्यस्त रहता है, उसकी बुद्धि निश्चल और निश्छल नहीं हो पाती । व्रत एक प्रकार की प्रतिज्ञा है। व्रत को ग्रहण करना एक प्रकार से प्रतिज्ञाबद्ध होना है । प्रतिज्ञाबद्ध व्यक्ति निश्चल हो जाता है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि जो व्रत हैं, वे किसी एक ही धर्म की धरोहर नहीं हैं और न उन पर किसी का एकाधिकार ही है । ये व्रत सभी व्यक्तियों के लिए समाज और राष्ट्र के लिए हैं, जिनमें योग्यता और क्षमता है, वे व्यक्ति व्रत ग्रहण कर सकते हैं। 1 व्रतों का मूल उद्देश्य कर्मों की निर्जरा है। आत्मशुद्धि, परमात्मा भाव की प्राप्ति और वीतरागता की उपलब्धि है । कोई भी भौतिक, सांसारिक लालसा, स्वार्थ, भय, प्रलोभन व्रतों का 1. तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं, 1/2 2. वरंगचरिउ, कडवक 1/11 3. जैन धर्म की सांस्कृतिक विरासत, पृ. 98 4. वही, पृ. 112
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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