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________________ 77 वरंगचरिउ उद्देश्य नहीं है।' पं. तेजपाल व्रत का महत्त्वपूर्ण वर्णन करते हुए कहते हैं कि 'वयविणु मणुयजम्मु अकयत्थउ'' अर्थात् व्रत के बिना मनुष्य जन्म सार्थक नहीं है और आगे बारह व्रतों का प्रयोजनभूत वर्णन किया है रिउ रिउ पयार सावय वयाइ। दिदु करि पालिज्जइ सावयाइ।।' अर्थात् श्रावक के लिए 12 व्रतों का पालन दृढ़ता से करना चाहिए। वह बारह व्रत इस प्रकार हैं-पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत। अणुव्रत-हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील और मूर्छा (परिग्रह)-इन पांचों पापों से स्थूलरूप या एकदेश रूप से विरत होना अणुव्रत है। अणु शब्द लघु या छोटे के अर्थ में प्रयुक्त होता है। जो स्थूलरूप से पांचों पापों का त्याग करता है, वही अणुव्रत का धारी माना जाता है। 1. अहिंसाणुव्रत-जीवों की हिंसा से एकदेश विरत होना अहिंसाणुव्रत है। मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदन से दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चौइन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय जीवों का घात न करना अहिंसाणुव्रत है। प्रथम जीव का अभयदान का व्रत रखना चाहिए। अपने समान ही जीवमात्र को मानना चाहिए। त्रसकाय जीवों की रक्षा करना चाहिए। स्थावर जीवों में भी परिमाण रखना चाहिए। दम्भ,पाखण्ड, ऊँच-नीच की भावना, अभिमान, स्वार्थबुद्धि, छल-कपट प्रभृति भावनाएँ हिंसा हैं। अहिंसा में त्याग है, भोग नहीं। जहां राग-द्वेष है, वहां हिंसा अवश्य है। अतः राग-द्वेष की प्रवृत्ति का नियंत्रण आवश्यक है। 2. सत्याणुव्रत-अहिंसा और सत्य में घनिष्ठ सम्बन्ध है। एक के अभाव में दूसरे की साधना शक्य नहीं। ये दोनों एक-दूसरे के पूरक तथा अन्योन्याश्रित हैं।' जो स्थूल झूठ न तो स्वयं बोलता है और न दूसरों से बुलवाता है तथा विपत्ति का कारणभूत सत्य-वचन भी न तो स्वयं बोलता है और न दूसरों से बुलवाता है, उसी को सत्याणुव्रत कहते हैं। असत्य कभी भी नहीं बोलना चाहिए, हित-मित प्रिय वचन ही बोलना चाहिए। अतः स्थूल झूठ का त्याग किये बिना प्राणी अहिंसक नहीं बन सकता है। 3. अचौर्याणुव्रत-मन, वचन और काय से किसी की सम्पत्ति को बिना आज्ञा न लेना अचौर्याणुव्रत है अर्थात् स्वयं अथवा अन्य व्यक्तियों के द्वारा दिये गए पर-द्रव्य को ग्रहण नहीं 1. जैन धर्म की सांस्कृतिक विरासत, पृ. 114 2. वरंगचरिउ, कडवक 1/11 3. वरंगचरिउ, 1/16 4. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 3/53 5. वरंगचरिउ, 1/16 6. जैन धर्म की सांस्कृतिक विरासत, पृ. 116 7. वही, 116 8. रत्नकरण्ड श्रावकाचार 3/55 9. वरंगचरिउ, 1/16
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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