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________________ 26 वरंगचरिउ 1014 ई. के आसपास है । द्वितीय भट्ट वामदेव माहेश्वराचार्य की रचना 'जन्म-मरण विचार' है, जिसमें परमशिव की शक्ति और उसके प्रसार का विवेचन है। इसमें एक दोहा अपभ्रंश में है । इसका रचनाकाल 11वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध है। तृतीय शितिकण्ठाचार्य की कृति महानयप्रकाश (15वीं सदी) में अपभ्रंश के 94 पद्य हैं। यद्यपि उक्त शैव सम्प्रदाय की रचनाओं में साहित्यिकता का अभाव है, लेकिन भाषा और भावधारा की दृष्टि से इनका विशेष महत्त्व है। 4. ऐहिकतापरक अपभ्रंश साहित्य अपभ्रंश भाषा का कुछ साहित्य ऐसा भी प्राप्त होता है, जिसमें धर्म विशेष का वर्णन नहीं है, इसी साहित्य का नाम ऐहिकतापरक अपभ्रंश साहित्य है । इसका वर्गीकरण दो प्रकार से किया जा सकता है - 1. वह पद्य जो अलंकार, छन्द और व्याकरण की पुस्तकों में उद्धृत हैं एवं 2. प्रबन्धात्मक रचनाएँ । प्रथम वर्ग के अन्तर्गत महाकवि कालिदास के 'विक्रमोर्वशीय' के चतुर्थ अंक के अपभ्रंश-पद्य हैं, जो प्रकृति वर्णन आदि के दृष्टि से अत्यन्त सुन्दर एवं सजीव है। वैयाकरणों में सर्वप्रथम चण्ड ने अपभ्रंश के दो दोहे उद्धृत किये हैं। आनन्दवर्धन के ध्वन्यालोक में एक दोहा, भोज के सरस्वती-कंठाभरण में 18 अपभ्रंश पद्य, रुद्रट के काव्य अलंकार में अपभ्रंश के कुछ दोहे, हेमचन्द्र के अपभ्रंश व्याकरण में उद्धृत दोहे, प्राकृत पैंगलम्, मेरुतुंगाचार्य द्वारा रचित प्रबन्ध चिन्तामणि, राजशेखर सूरिकृत प्रबंधकोष आदि में भी अपभ्रंश के दोहे मिलते हैं। उक्त रचनाएँ शृंगार, प्रेम, वैराग्य, नीति एवं सूक्ति आदि की विविधता एवं अलंकारिक छटा से परिपूर्ण हैं । ऐहिकतापरक अपभ्रंश साहित्य के द्वितीय वर्ग प्रबन्धात्मक काव्य में ग्रन्थों की संख्या कम है। इनमें एक ही रचना का उल्लेख प्राप्त होता है - अब्दुल रहमान का सन्देशरासक । सन्देशरासक - यह कवि अब्दुल रहमान की प्रसिद्ध कृति है। अपभ्रंश काव्यधारा में सन्देशरासक की रचना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । सन्देशरासक एक सुन्दर प्रेमकाव्य है। सन्देशरासक में 223 छन्द हैं। यह एक खण्डकाव्य है, जो तीन प्रक्रमों में विभाजित है । प्रथम प्रक्रम में तेईस (23) छंदों में मंगलाचरण, कविपरिचय, ग्रन्थ रचना और आत्म-निवेदन है। वास्तविक कथा द्वितीय प्रक्रम से प्रारंभ होती है। "इसकी मर्मस्पर्शिता की तुलना संस्कृत में मेघदूत, अपभ्रंश में मंजुरास, 'ढोलामारुरा दूहा' तथा बीसलदेवरासो जैसे कुछ काव्यग्रंथों से ही की जा सकती है ।" " इस काव्य में राजस्थान की एक विरहिणी नायिका के अपने प्रिय पति के विरह में व्यथित होने की कथा है। इसमें विरह का बहुत ही रसपूर्ण वर्णन किया गया है। 1. अपभ्रंश और अवहट्ट : एक अन्तर्यात्रा, पृ. 104
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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