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________________ 27 वरंगचरिउ (v) वरंगचरिउ का महत्त्व - अपभ्रंश भाषा में अनवरत काव्य साहित्य लिखा जाता रहा है। अपभ्रंश प्राकृत का बिगड़ा हुआ रूप है अर्थात् जब प्राकृत ने मूल स्वरूप को छोड़ दिया अथवा प्राकृत में वैकल्पिक प्रयोगों का प्रचलन अत्यधिक बढ़ गया, तब उस भाषा को अपभ्रंश नाम दिया गया। इस भाषा में कथा तथा चारित्र प्रधान काव्यों का सृजन सर्वाधिक मात्रा में हुआ है, साथ ही पुराण एवं अध्यात्मपरक ग्रन्थों का भी प्रणयन किया गया। जैन साहित्य की समृद्धता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि आज जितना साहित्य प्रकाशित होकर हमारे सामने उपलब्ध है, उससे कई गुना अधिक साहित्य पाण्डुलिपियों के रूप में ग्रन्थभण्डारों में संग्रहीत है। आज आवश्यकता है यथानुसार उनका सम्पादन करके समाज के समक्ष विलुप्त ज्ञान राशि को उजागर किया जाए। आगम साहित्य के अतिरिक्त सैकड़ों ग्रन्थ जो आज धर्म, दर्शन, अध्यात्म, आचार एवं नीति आदि विविध विधाओं का ज्ञानवर्धन कर रहे हैं, उससे भी अधिक सामग्री स्रोत कथा, प्रकरण, व्याख्या, सैद्धान्तिक विवेचनों से सम्बन्धित विधाओं का ज्ञान कराने में समर्थ कही जा सकती हैं। पाण्डुलिपियों का संरक्षण करने वाले ग्रन्थभंडार हमारी सांस्कृतिक धरोहर के केन्द्र हैं। प्राकृत की परवर्ती परम्परा में अपभ्रंश भाषा में जो साहित्य आज अप्रकाशित है, उनमें से पन्द्रहवीं शताब्दी के रचनाकार "पं. तेजपाल की कृति वरांगचरिउ" के पाठ-सम्पादन का अपना विशेष महत्त्व है। पाठ सम्पादन का यह कार्य मौलिक है। यह ग्रन्थ सम्पादित होकर प्रकाश में आया। यह सबसे उपयोगी बात है क्योंकि आज ग्रन्थभण्डारों में न जाने कितने ग्रंथ पड़े हुए हैं, जो जीर्ण-शीर्ण हो रहे हैं और नष्ट होकर धूल बन जाते हैं, उनका कोई उपयोग नहीं हो पाता। यह ग्रन्थ किसी की बाट जोहते रहते हैं कि कोई आए और मुझे प्रकाश में लाये । इस प्रकार यह ग्रन्थ प्रकाश में आया और समाज के समक्ष प्रस्तुत हुआ, यह प्रथम उपयोगिता है। दूसरी बात इस शोधपूर्ण प्रस्तावना के कारण समाज एक नवीन कृति से परिचित होगा, जो समाज के लिए साहित्यिक अवदान कहा जा सकता है। तीसरी बात शोधार्थी एवं विद्वत् वर्ग के लिए यह सन्दर्भ (References) के लिए उपयोगी होगा। चौथी बात ग्रन्थ में तत्कालीन सामग्री भी प्राप्त होती है, जिसमें उस समय की संस्कृति के बारे में पता चलता है, जिसके कारण एक नया शोध का Topic भी बनाया जा सकता है, जिसमें उसके आर्थिक, राजनीतिक एवं धार्मिक पक्ष को लेकर, साथ ही भाषा-वैज्ञानिक अध्ययन आदि को लेकर एक नया शोध-प्रबंध लिखा जा सकता है।
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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