SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वरंगचरिउ महामुद्रा (जोगिनी) बनाकर जंगल में रहने लगे । 25 राहुलजी ने इनका काल बंगाल में पालवंशीय राजा गोपाल धर्मपाल 750-806 ई. का समकालीन बताते हुए 760ई. माना है। पं. हरप्रसाद शास्त्री के अनुसार इनके कई नाम मिलते हैं- सरोव्रज, पद्मव्रज, राहुलभद्र आदि। इनके प्रधान शिष्य शबरपा थे एवं यह उदारमना व्यक्ति थे। इनके प्रमुख ग्रंथ इस प्रकार हैं- 1. कायाकोष, 2. अमृतवज्रगीती, 3. चित्तकोष-अज-वज्रगीति, 4. डाकिनी-गुह्य-वज्रगीति, 5. दोहाकोष उपदेशगीति, 6. दोहकोष, 7. तत्त्वोपदेश-शिखरदोहाकोष, 8. भावनाफल-दृष्टिचर्या दोहा कोष, 9. बसन्ततिलक दोहाकोष, 10. महामुद्रोपदेश दोहाकोष, 11. सरहपाद गीतिका । ' 2. कण्हपा - कण्हपा का जन्म कर्नाटक प्रान्त में हुआ था । इनके शरीर का रंग काला होने के कारण इनका नाम कृष्णपाद कहा जाता है। राहुलजी इन्हें ब्राह्मण जाति में उत्पन्न और देवपाल का समकालीन मानते हैं । इनका समय 806-849 ई. माना जाता है । इसप्रकार इनका काल 840 ई. माना है। इनके गुरु का नाम जालन्धर पाद था और सोमपुरी बिहार में बहुत दिनों तक इनका निवास रहा। इनकी निम्न कृत्तियां प्राप्त होती हैं- 1. गीतिका, 2. महाहुंठन, 3. बसंत तिलक, 4. असम्बन्ध दृष्टि, 5 वज्रगीति और 6. दोहाकोष । चौरासी सिद्धों की रचनाओं में प्रायः मिलता-जुलता प्रतिपादन प्राप्त होता है । अविद्या से मुक्त होकर अपने ही अन्तस् में रहने वाले सहजानन्द की उपलब्धि इनका परम लक्ष्य है। अन्य मार्गों को टेढ़ा बताकर सहज मार्ग को सीधा कहा गया है और गुरु की आवश्यकता को अनिवार्य बताया गया है। इन सिद्धों की रचनाओं में छन्दों की विविधता नहीं के बराबर है । धर्मगीतों में गेय पद है और 'दोहाकोश' का प्रधान छन्द 'दोहा' है। कुछ सोरठे व अन्य छन्द भी हैं। सिद्धों की भाषा के दो रूप हैं-पूर्वी अपभ्रंश और शौरसेनी अपभ्रंश । इनका समय सम्वत् 800 से 1000 तक है । 1 3. शैव अपभ्रंश साहित्य कश्मीरी शैव संप्रदाय की कुछ रचनाएँ अंशतः अपभ्रंश में मिलती हैं, जिनका परिचय इसप्रकार है तंत्रसार - इस परम्परा में अभिनव गुप्त का 'तंत्रसार' प्रमुख है, जिसमें व्यक्ति को परम शिव मानकर, इसमें शैवमत का विवेचन किया गया है। यह ग्रंथ संस्कृत में लिखा गया है, परन्तु इसके अध्ययन के अन्त में प्राकृत, अपभ्रंश में सम्पूर्ण अध्याय का सार दिया गया है। इसका रचनाकाल 1. हिन्दी काव्यधारा, पृ. 2-3
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy