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________________ 22 वरंगचरिउ इसे रोमांस काव्य की संज्ञा दी है।' धनपाल ने भविसयत्तकहा में वणिकपुत्र भविष्यदत्त की भाग्य गाथा का वर्णन किया है। करकण्डचरिउ-यह कृति मुनि कनकामर द्वारा रचित है। जैन मुनि परम्परा में आत्म परिचय की अभिव्यक्ति कदापि नहीं रही है। इसी परम्परा में मुनिश्री कनकामर का नाम भी लिया जाता है। मुनिश्री ने प्रसंगवशात् स्वविषय में जीवन-बिन्दुओं का स्पर्शमात्र किया है, तथापि उनका जीवनवृत्त स्पष्ट-सा है। कवि ने ग्रन्थ की हर सन्धि के अन्त में अपना नाम दिया है। ग्रन्थ के अंत में जो प्रशस्ति दी गई है, उससे कवि की जाति, धर्म, गुरु आदि के सम्बन्ध में जानकारी मिलती होती है। ये मंगलदेव के शिष्य थे। ग्रन्थ के आदि-अन्त में कवि ने गुरु-वन्दना की है।' अपने परिचय में कनकामर ने अपने को ब्राह्मणवंश में चन्द्रऋषि गोत्रोत्पन्न कहा है। कालान्तर में कविश्री देहभोगों से विरक्त होकर दिगम्बर मुनि बन गये। तब से उनका नाम मुनि कनकामर हो गया। यात्रा करते हुए वह आसाइस नगरी में पहुंचकर चरित्रात्मक महाकाव्य 'करकण्डचरिउ' की रचना की। प्रो. हीरालालजी के अनुसार यह नगर म.प्र. में है। प्रो. हीरालाल जैन के अनुसार ग्रन्थ का समय 1065 ई. के आस-पास है। इनकी एकमात्र कृति करकंडचरिउ है, जो 10 संधियों में विभक्त है। इसमें करकण्डु के चरित्र के माध्यम से जैन धर्म की महत्ता प्रदर्शित की है। इस ग्रंथ का सम्पादन प्रो. हीरालालजी ने किया है। जम्मूस्वामिचरिउ-इसके रचयिता वीरकवि हैं। ये अपभ्रंश परम्परा के एक प्रसिद्ध व्यक्तित्व हैं। वे मालवा देश के अन्तर्गत 'गुलखेड' नामक ग्राम के निवासी थे। इनके पिता अपभ्रंश के ख्यातिप्राप्त कवि देवदत्त और माता श्रीमती संतु थी। इनका गोत्र-वंश लाड वागड था। कवि के तीन सहोदर' (भाई) थे। उनके शुभ नाम इस प्रकार है-सीहल्ल, लक्षणांक तथा जसई। उनकी अनेक पत्नियों एवं एक पुत्र होने के भी उल्लेख प्राप्त होते हैं। ___ कवि काव्य, व्याकरण, तर्क और छन्दशास्त्र के पारगामी विद्वान् थे। साथ ही जैन विद्या एवं जैनेतर विद्या में अपने पुरुषार्थ से निपुणता प्राप्त की थी। आपने अनुयोग अनुशीलन में अपने पुरुषार्थ का उपयोग लगाया। आप द्रव्यानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग आदि विषयों के विज्ञ बन गये। साथ ही जैनेतर विद्या एवं ग्रंथीय ज्ञान का अर्जन भी किया। आपने बाल्मीकि रामायण, महाभारत, शिवपुराण, विष्णुपुराण, भरतनाट्यशास्त्र, सेतुबंध आदि का विधिपूर्वक स्वाध्याय किया। इस प्रकार वीरकवि काव्य, व्याकरण के साथ-साथ जैन विद्या एवं जैनेत्तर विद्या में सिद्धहस्त विद्वान् थे। 1. हिस्ट्री ऑफ इण्डियन लिटरेचर, भाग-3, पृ. 533, 2. करकंडचरिउ 1/2/11, 10/2813, 3. जस्स य पसण्णवयणा लहुणो सुमइ सहोयरा तिण्णि । सीहल्ल, लक्खणंका जसइ नामे त्ति विक्खाया।।7 ।। (प्रशस्ति जम्बू, च.) 4. "जंबूस्वामीचरिउ के यशस्वी महाकवि वीर का व्यक्तित्व"-डॉ. महेन्द्र सागर प्रचंडिया, जैन विद्या-5-6, पृ. 10, "वीर कवि विशेषांक", जैन विद्या संस्थान, श्री महावीरजी
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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