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________________ 218 वरंगचरिउ नरक-जो पापी जीवों को अत्यधिक दुःखों को प्राप्त कराने वाला है, वह नरक है। जो गति नरक-गति नाम-कर्म से प्राप्त होती है, उसे नरकगति या नरकयोनि कहते हैं। णिग्गंथु (निर्ग्रन्थ) 1/10 मुनिराज का एक विशेषण निर्ग्रन्थ है। ग्रन्थ का अर्थ परिग्रह है। जो बाह्य और आभ्यन्तर ग्रंथि से विनिर्मुक्त है, वह निर्ग्रन्थ है। णिगोय (जीवनिगोयराशि) 1/10, 1/12 निगोद का अर्थ है-नि अर्थात् अनन्तपना है, निश्चित जिनका ऐसे जीवों को 'गो' अर्थात् एक ही क्षेत्र 'द' अर्थात् देता है, उसको निगोद कहते हैं। जो निगोद जीवों को एक ही निवास दे उसको निगोद कहते हैं। जिनका निगोद ही शरीर है, उनको निगोद शरीरी या निगोद जीवराशि कहते हैं। निगोद के दो भेद हैं-नित्यनिगोद और इतर निगोद (चतुर्गति निगोद)। नित्यनिगोद-जो कभी त्रस पर्याय को प्राप्त करने योग्य नहीं होते, वे नित्यनिगोद हैं। इतर/अनित्य-जिन्होंने त्रस पर्याय पहले पायी थी अथवा पायेंगे, वे अनित्य-निगोद है। तक्करु (तश्कर/चोरी) चोरी करना व्यसन के अंतर्गत आया है। प्रयोजनवश बिना पूछे किसी की रखी हुई, भूली हुई, रास्ते में पड़ी हुई वस्तु को ग्रहण करना चोरी है। तव (तप) 4/15, बारह विहूतव 4/22 इच्छाओं का निरोध करना तप है। विषयों से मन को दूर करने के हेतु एवं राग-द्वेष पर विजय प्राप्त करने हेतु जिन-जिन उपायों द्वारा शरीर, इन्द्रिय और मन को तपाया जाता है अर्थात् इन पर विजय प्राप्त की जाती है, वे सभी उपाय तप हैं। तप के दो भेद हैं-1. बाह्य तप, 2. आभ्यन्तर तप। बाह्य तप के 6 भेद हैं-अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रस परित्याग, विविक्त शय्यासन एवं कायक्लेश। ___ आभ्यन्तर तप के 6 भेद हैं-प्रायश्चित्, विनय, वैय्यावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान तप। तस (वस) 1/10 जिनके त्रस नाम कर्म का उदय है, वे त्रस कहलाते हैं।' दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चतुःइन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय (संज्ञी और असंज्ञी) त्रस जीव हैं। तिक्कशल्लु (तीन शल्य) 3/7, सल्लहि 1/10 शल्य शब्द का अर्थ है पीड़ा देने वाली वस्तु। जब शरीर में कांटा आदि चुभ जाता है तो 1. सर्वार्थसिद्धि, अध्याय-2/सूत्र-12, पृ. 124
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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