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________________ वरंगचरिउ 219 शल्य कहलाता है । जिस प्रकार कांटा आदि शल्य प्राणियों को बाधाकर होती है, उसी प्रकार शरीर और मन सबकी बाधा का कारण होने से कर्मोदय जनित विकार में भी शल्य का उपचार कर लेते हैं अर्थात् उसे शल्य कहते हैं। शल्य तीन प्रकार की है - माया शल्य, निदान शल्य और मिथ्यादर्शन शल्य । 1. मायाशल्य-माया, निकृति एवं वंचना अर्थात् ठगने की वृत्ति यह मायाशल्य है। 2. निदान शल्य-भोगों की लालसा निदान शल्य है। 3. मिथ्यादर्शन - अतत्त्वों का श्रद्धान मिथ्यादर्शन शल्य है। तित्थंकर (तीर्थंकर) 4 / 15 जो धर्मतीर्थ का उपदेश देते हैं, समवशरण आदि विभूति से युक्त होते हैं, जिन्हें तीर्थंकर नामकर्म नाम की महापुण्य प्रकृति का उदय होता है उन्हें तीर्थंकर कहते हैं। तीर्थंकर चौबीस होते हैं। तेरहविहु चारित्तु (13 प्रकार का चारित्र ) जैन वाङ्मय में चारित्र के 13 भेद प्राप्त होते हैं, जो इस प्रकार हैं- पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति । थावर - स्थावर 1/10 जिनके स्थावर नामकर्म का उदय है, वे स्थावर कहलाते हैं । थुत्ति (स्तुति) 1/10 स्तुति, स्तवन, वंदन, अर्चना आदि सारे शब्द गुणानुवाद के अभिव्यंजक हैं। जिनेन्द्रदेव का गुणानुवाद ही स्तुति है । दंसणरयणु ( दर्शन रतन ) सम्यग्दर्शन 3 / 4 सातों तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है । आचार्य समन्तभद्र के अनुसार सत्यार्थ और मोक्ष के कारणभूत देव, शास्त्र और गुरु का आठ अंग सहित तीन मूढ़ता रहित, आठ मद रहित श्रद्धान करना ही सम्यग्दर्शन है। उसके आठ अंग निम्न हैं- 1. निःशंकित, 2. निःकांक्षित, 3. निर्विचिकित्सा, 4. अमूढ़दृष्टि, 5. उपगूहन, 6. स्थितिकरण, 7. वात्सल्य, 8. प्रभावना । दहलक्खणु (धम्मुदहविहि ) दशलक्षण धर्म (1 / 10,4 / 15 ) धर्म के दस प्रकार हैंहैं - उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य एवं उत्तम ब्रह्मचर्य । दाणंतराय 2/5 1. सर्वार्थसिद्धि, अध्याय - 7 / सूत्र - 18, पृ. 275
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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