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________________ वरंगचरिउ 217 जिंदेउ (जिनदेव) 1/10 वरंगचरिउ में जिनेन्द्र देव के और भी पर्यायवाची प्राप्त होते है - जिनवर एवं जिण आदि। जिन का अर्थ – जिसने मोह राग-द्वेष और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त की है, वह जिनेन्द्र है। जो वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी भी होते हैं। जिणधर्म/जिणसासण (3/3) __ जो जिनेन्द्र द्वारा प्रतिपादित धर्म है, उसे जिनधर्म कहते हैं और उनका अनुशासन ही जिनशासन है। जिणगुण (जिनगुण) 1/3 पंचपरमेष्ठी में अरहंत और सिद्ध को जिन संज्ञा के रूप में कहा जाता है। अर्थात् उनके गुण ही जिनगुण है। अरहंत परमेष्ठी के 46 गुण होते हैं और सिद्ध परमेष्ठी के 8 गुण होते हैं। जूव = जुआ (धूत क्रीड़ा) 1/10 वरंगचरिउ में जूव शब्द जुआ व्यसन के रूप में प्रयुक्त हुआ है। जो पैसों की बाजी लगाकर हार-जीत के खेल खेले जाते हैं, उसे जुआ कहते हैं। जैसे-तास, चौपड़, सट्टा, छकड़ी, मटका, शतरंज, लॉटरी आदि। जोणि (योनि) 4/19 जीव जो भव (पर्याय) धारण करता है, उसे योनि कहते हैं। जैसे-जीव की मनुष्य पर्याय तो वह मनुष्य योनि है। इसप्रकार जैन वाङ्मय में 84 लाख योनियों का उल्लेख प्राप्त होता है। णय (नय) 4/16 जिस नीति के द्वारा एकदेश विशिष्ट पदार्थ लाया जाता है, उसे नय कहते हैं।' नाना स्वभावों से हटाकर वस्तु को एक स्वभाव जो प्राप्त कराये, उसे नय कहते हैं। ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं। वस्तु के एक देश को ग्रहण करता है एवं अनंत धर्म वाली वस्तु के किसी एक धर्म को जानने वाले ज्ञान को नय कहते हैं। नय के मुख्य दो भेद हैं-1. द्रव्यार्थिक नय, 2. पर्यायार्थिक नय। 1. द्रव्यार्थिक-द्रव्य ही जिसका प्रयोजन है, वह द्रव्यार्थिक नय कहलाता है। 2. पर्यायार्थिक नय-पर्याय ही जिसका प्रयोजन है, वह पर्यायार्थिक नय है। णरइ/णरय जोणि (1/10, 1/4) 1. स्याद्वाद मंजरी, श्लोक-27, परमश्रुत प्रभाव मण्डल, आगास, वि.सं. 1991 2. आलापद्धति. आचार्य देवसेनकृत, सूत्र-9
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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