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________________ 216 वरंगचरिउ उक्त कुलकरों ने अपने समय के मानव को अनेक प्रकार से शिक्षित किया था एवं उन्हें संरक्षण प्रदान किया था। केवलणाण (केवलज्ञान) 1/1 जो लोकालोक के समस्त पदार्थों को युगपत् जानता है। साथ ही समस्त द्रव्य और उनकी अनंतानंत पर्यायों को इन्द्रिय ज्ञान से रहित एक साथ जानता है, वह केवलज्ञान है। चउदसि (चतुर्दशीव्रत) 1/16 जैन धर्म में चतुर्दशी एक शाश्वत पर्व के रूप में मनाया जाता है। इस दिन लोग संयम की आराधना करते हैं, साथ ही एकाशन या उपवास भी संयम की आराधना के लिए रखते हैं। चउगइ (चतुर्गति) गति जीव की अवस्था विशेष को गति कहते हैं, जिसके द्वारा जीव नरकादि चारों गतियों में गमन करता है, वह गति कहलाती है। गतियाँ चार होती हैं-1. मनुष्य गति, 2. तिर्यंच गति, 3. देव गति, 4. नरक गति। चेई/चेयालउ (चैत्यालय) 3/7, 3/9 जिन प्रतिमा व उनका स्थान अर्थात् मन्दिर चैत्य व चैत्यालय कहलाते हैं। ये मनुष्यकृत और अकृत्रिम दोनों होते हैं। छज्जीव (षट्जीव) पांच स्थावर जीव एवं एक त्रस जीव की संज्ञा षट्जीव होती है। आगम साहित्य में इनका प्रतिपादन छज्जीव नाम से प्राप्त होता है। जलगालणु (जलगालन) 1/15 ___ जल में त्रस जीव पाये जाते हैं, जो सूती सफेद गाढ़े (मोटे) व दुहरे (दुपट्ट) कपड़े से छानना चाहिए। ऐसा करने पर त्रस जीव अलग हो जाते हैं। अतः पानी छानकर पीना और उपयोग में लेना चाहिए। जिस छन्ने से पानी छाना गया है, उसमें जो त्रस जीव राशि सूक्ष्म है, उसी छन्ने को पानी भरने के पात्र में सावधानी से उठाकर अथवा तिरछा कर छने जल की धीरे से धार देना चाहिए, जिससे उसकी समस्त जीवराशि बाल्टी में आ जाये। इसी जीव राशि का नाम 'जिवानी' है, इसे सावधानी पूर्वक जलाशय में पहुंचाना चाहिए। जलछन्ना 36 अंगुल लम्बा और 24 अंगुल चौड़ा होता है जो बाल्टी आदि पात्र से तिगुना होना चाहिए। छने जल की मर्यादा दो घड़ी (48 मिनिट) होती है, प्रासुक जल की मात्रा लोंग आदि डालने पर 6 घंटे होती है।
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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