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________________ वरंगचरिउ 193 वहां आकर कुमार माता-पिता के चरणों में पड़ता है, तुम्हारे प्रसाद (कृपा) से मेरे दुःख भाग गये। सज्जन लोक में संतोष रूप प्रवर्तित होते हैं। दुर्जन के मुंह में काली स्याही लगायी गई हो। प्रिय मां महोत्सव करती है जैसे मानो नूतन पुत्र होने पर धन दिया जाता है। घर में आये वरांग को सुनकर, शत्रु अपनी सेना लेकर भाग जाता है। नववधु गुणदेवी के चरण छूती है, सभी वधुओ को देखकर रानी (गुणदेवी) हर्षित होती है। ___घत्ता-तब श्रेष्ठ गुण युक्त पुत्र से सम्पूर्ण चरित (अभी तक जो हुआ) पूछा जाता है। कुमार जहां-जहां घूमता रहा एवं सुख-दुःख सहन किया, वहां का सब कुछ कहता है। 11. सुषेण को क्षमा याचना यहां पर (कंतपुरनगर) देवसेन आता है फिर उसका अनेक प्रकार से सम्मान किया जाता है, अनेक दिनों तक वरांग ने उनकी ठीक तरह आवभगत की, फिर वरांग को छोड़कर देवसेन अपने नगर को गया। एक दिन मंत्री सुषेण को लेकर जहां वरांग है, वहां पर दोनों पहुंचते हैं। सुषेण कहता है हे भ्राता सुनो तुम (आप) धर्मवान हो किन्तु मैं निरन्तर छलकपट करता रहा। जो मैंने तुम्हारे साथ गुनाह किया है, उन सभी के लिए हे भ्राता! मुझे क्षमा करो। क्या क्षमा? कोई भी अपराध नहीं है, तुम तो मेरे बड़े भाई कहे जाते हो, कौन अपराध है, मैं सभी को क्षमा करता हूँ। इस प्रकार वचन सुनकर सुषेण गर्व (मान) छोड़ता है। जो मंत्रीवर दीर्घकाल से सुशोभित हुए थे, उसके बारे में भी सुषेण ने सब कुछ कुमार से कह दिया, उसे भी क्षमा करता हूँ। भो! भाई तुम्हारे समान कौन भव्य है? तुम गर्वहीन और छलकपट रहित स्वभाव के हो एवं शरीर तेज से सूर्य के प्रकाश (दिवसराउ) को जीता है। भाई राज्य का सम्पूर्ण भार ले लो एवं मेरी लक्ष्मी और भूमि भी ले लो। इस प्रकार परस्पर (एक-दूसरे से) स्नेह के वचन कहते हैं। __कुमार सुषेण अपने घर को चला गया। तब दूसरे दिन गुणदेवी का पुत्र (वरांग) अपने पिता के समक्ष रात को एक बात कहता है-हे देव! सुषेण के लिए आज ही युवराज पद दे दीजिए और वह राज्य करे। तात (पिता) कहते हैं-तुम ही सब कुछ ले लो, मेरा मान (सम्मान) कौन रखता है तो तुम रखते हो। घत्ता-पुनः वरांग कहता है, गुप्त नहीं रखते है, मैं युवराज पद नहीं लूंगा, दूसरों की सेना को मैं वश में करूंगा, पृथ्वी पर अवगाहन करूंगा, मैं शत्रु राजा के मद (मान) को भग्न करूंगा।
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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