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________________ वरंगचरिउ 131 धनुष बाण को ग्रहण करके आरूढ़ होता है, जीवन का अंत करने वाला भाला (कुंत) लेता है। जिस प्रकार सिंह मृग के ऊपर छलांग लगता है उसी प्रकार कुमार वरांग वनचर समूह के सामने पहुंचता है। कुमार वनचर-समूह, नागपति, खगपति का वैसे ही नाश करता है, जिस तरह जिनदेव कर्मबलादि का नाश करते हैं। जब कुमार रणभूमि में पहुंचा तब अनगिनत बाणों का सामना करता है, दिग्गज (योद्धा) मारो-मारो के शब्दों से उसे त्रासित करते हैं। नृपकुमार वरांग वणिक् समूह को आश्वासन देता है। लो-लो के शब्द सुनकर भील विचार करते हैं तब महाकाल यमराज के मुख में प्रवेश करेगा। उसका पुत्र काल भी रण में घायल हो जाता है। वणिपति विजय प्राप्त कर मन में प्रसन्न होता है। इस प्रकार पुनः योद्धाओं का समूह दौड़ता है अथवा जो भय से भाग गये, वे पुनः आ जाते हैं। कुमार वरांग बलवान योद्धाओं के शब्दों को सुनता है। यहां रणभूमि में योद्धाओं का योद्धाओं के साथ संग्राम होता है। बाणों का समूह शत्रु की पृथ्वी पर गिरता है। वणिक-समूह ने स्वामी को ताड़ित किया। रोष युक्त होकर दोनों सेनाएँ भिड़ती हैं, दोनों सेना बलपूर्वक बाणों से युद्ध करती हैं। युद्धभूमि में महान योद्धा प्रगट (उत्पन्न) होते हैं और वरांग के ऊपर टूट पड़ते हैं। महाकाल का पुत्र जो मन को प्रिय लगने वाला है, जिसका नाम काल है। वह रोष पूर्वक भिड़ता है, अनगिनत बाण छोड़ता है। अत्यंत क्रोध से उसके नेत्र रक्तमय हो जाते हैं। घत्ता-उस कुमार योद्धा (दुर्धर) को देखकर उसकी क्रोध अग्नि प्रज्ज्वलित हो जाती है और कहता है-रे दुष्ट! काल की सुनो, तुम मरोगे, तुम पौरुष (बल) से गर्व युक्त मत हो। दुवई-रे! अकाल में विनाश को मत प्राप्त करो, मेरा पार पाना समुद्र के तुल्य दुर्गम है। अपने घर को शीघ्र जाओ, जैसे मृगों का समूह सिंह को देखकर चला जाता है। ___9. कुमार वरांग के लिए भील कुमार के द्वारा धमकी देना भील कुमार कहता है मुझसे युद्ध में मत भिड़ो, अभयदान लो, मेरे द्वारा तुमको जीवनदान दिया जाता है। अपनी प्रिया को वैधव्य (विधवा) नहीं करो, यहां से जाते हुए अपना सुखमय जीवन यापन करो, अभी कुछ दिन जल का स्वाद लीजिए। अपनी प्रिय मां से जाकर मिलो, रे! दुष्ट पापी मत मरो, मत मरो। मैं जानता हूं तुम यमराज को प्राप्त करोगे, मेरा अत्यन्त हितकर आहार तुमने छीन लिया, इस तरह तुम्हारे तन को मैं अग्नि में डालता हूँ। ब्रह्मलोक की शरण में जाओ अथवा पाताल में गमन करो, देव, मनुष्य और विद्याधर की शरण में जाओ, गहरे समुद्र में प्रवेश करो। अरे! तो भी नहीं छोडूंगा। अभी तुम्हारी समर्थ को प्रलयकाल में पहुंचाता हूँ। यह
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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