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________________ वरंगचरिउ 125 वह पूर्ववत् रक्षा करेगा। वनवासी भीलसमूह कुमार को इस प्रकार घेर लेता है, जिस प्रकार संसारी-जीव कर्मों से घिरा रहता है, दोषयुक्त घर में आचरित होता है, पुत्र, पत्नी और परिवारजन मोहनीय कर्म की वस्तु है। फिर वे मुष्टी प्रहार से कुमार के लिए मारते हैं एवं बांधकर अपने कारागार (जेल) में डाल देते हैं। कुमार विचार करता है-विधाता ने मुझे कौन-सी अवस्था के मध्य में डाला है। नृप धर्मसेन और गुणदेवी का पुत्र, कहां राजलक्ष्मी, कहां यह अवस्था, निंदित (कुत्सित) धरती है एवं कुत्सित (खराब) पदार्थ है। अत्यन्त बदबूदार एवं दुर्गंध युक्त मृत शरीर (कलेवर) पड़े हुए हैं। सवर (भील) के द्वारा फाड़ा (विदीर्ण) हुआ मृग लाया गया है, वे दुष्कृत पाप कर्म में निबद्ध होकर जीते हैं, अत्यन्त आसक्ति (स्नेहपूर्ण) से उनका भोग किया जाता है। जो स्वयं को सुख चाहता है और दूसरों को दुःख देता है, वह मूर्ख भविष्य में होने वाले दुःखों को नहीं जानता है। यह सुन्दर एवं लोक का सार कहा गया है। घत्ता-एक दिन भीलों का राजा जिसका नाम कुशुभ है। अपने देव की पूजा करने के लिए वह श्रेष्ठ राजा प्रसन्न मन से चलता है। दुवई-वे (भील) वरांग को बाँधकर लाये और वे श्रेष्ठ दया धर्म से अनजान हैं। देवी के सम्मुख इसकी बलि चढ़ायेंगे एवं देवी को तृप्त करेंगे, इस प्रकार वनचर कहते हैं। 5. कुमार वरांग का बलि चढ़ने के सम्मुख उपस्थित होना . यह मरण के वचन सुनकर कुमार मन में भववन कि अनंतता का चिंतन करता है। मैं पूर्वकाल में अनेक पर्यायों में जिनधर्म से विहीन पापयुक्त होकर पृथ्वी पर भ्रमण करता रहा। मैंने बुढ़ापा, मरण और जन्म की अवस्था देखी, मैंने श्रेष्ठ तन को ग्रहण किया और पुनः मुक्त हुआ। इस प्रकार मैं पुनः अंतकाल प्राप्त कर रहा हूँ, (अतः) मन में दयालु जिनेन्द्रदेव के ज्ञान को धारण करता हूँ। मैंने पूर्वभव में दानांतराय कर्म किया और कहीं भोगांतराय कर्म किया है। उसका चिर-दुष्कृत उदय आया है, उसको कोमल स्वभाव से सहन करूंगा, कुमार इस प्रकार चिंतन करता है। वहां वे सभी भील देवी के मंदिर में अभिमान सहित आते हैं, जैसे ही वे वहां कहते हैं-कुमार वरांग की बलि अर्पित करो, तभी वहां कुमार वरांग को अचम्भा होता है। जो भिल्लराज का पुत्र, जंगल में भ्रमण करते हुए अनुपयुक्त हो जाता है, उसे विधि के वश सर्प द्वारा भक्षित किया जाता है, भूमि पर पड़ते हुए मूर्छित हो जाता है। उसने (पिता) आज्ञा दी, कुमार को बंधन से मुक्त करो। तुम्हारे पुत्र ने अत्यंत दुःख को प्राप्त किया है, इसे विषधर ने वन में भ्रमण करते हए खाया है। कोई इसे विद्याविशेष या मंत्र से जीवन दो। इस प्रकार मूर्च्छित एवं पुत्र की
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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