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________________ 119 वरंगचरिउ द्वितीय सन्धि 1. कुमार का जंगल में भ्रमण शुभ बुद्धि से युक्त वरांग कुमार सम्यक्त्व पद से निर्मित जिनका प्रकाश है, जिन्होंने अपने बल से मोह रूपी शत्रु का विनाश किया है, ऐसे जिनेन्द्र देव को नमस्कार करके ।।दुवई।।। वह केवलज्ञान लोचन जिनदेव मुझे निर्मल बुद्धि अर्पित करे, जिससे काव्य की परिपूर्ण समृद्धि होवे और भव्य उसका श्रवण कर आहारदान करें। छप्पय ।। इस प्रकार से वरांग पृथ्वी पर विहार करते हुए अचानक एक तालाब पर पहुंचता है। वहां जल इस तरह स्वच्छ (निर्मल) दिखता है, जैसे ज्ञानवान (ज्ञानी) का मन दोषों से रहित होता है। कुमार के अंगों में मैल और धूल लगी हुई दिखती है। जैसे ही कुमार की जल क्रीड़ा करने की इच्छा होती है, वैसे ही सरोवर के अंदर शीघ्र ही प्रविष्ट होता है। उसमें कुमार शील के दुःख को पाता है। एक वर्षा ऋतु का कीड़ा मांस के निमित्त उसके शरीर को त्रासित करता है। खोजने पर भी वह नहीं मिलता है। जैसे मनुष्य स्त्री के बंधन (खूटा) से बंधा हुआ है। वहां कुमार अपने मन में व्याकुल होता है। हाय मेरा चिरकाल व्यतीत हुआ, ऐसा कोई जल में बोलता है। कर्मविपाक (फल) संसार में बलवान है, उसको भोगे बिना क्या कोई जाता है? कर्म के कारण दशानन (रावण) लक्ष्मण के द्वारा मारा गया, प्रद्युम्न कुमार स्वर्ग से लौटा। कर्म के कारण चक्रवर्ती भरत जिनेन्द्रदेव (आदिनाथ) के पुत्र हुए, ऐरावत हाथी की सूंड के समान भुजाओं के बल से युद्ध भूमि में भुजबलियों (बलवान) को जीता और उन श्रेष्ठ का मानभंग भी हुआ। कर्म के कारण राजा यशोधर व्याकुल हुए और स्त्री के मोह से वह दुर्गति में पड़े। अन्यत्र भी लोक में धर्म-अधर्म कर्म को किया और उनके फल का भोग किया। प्रथम मित्र, परिजन, घर एवं मानयुक्त स्त्री से वियोग होते हुए, घोड़ा जंगल में भ्रमण करते हुए, फिर एक कुएं में गिर पड़ता है और (जैसे-तैसे) बाहर निकलता है। तब सिंह मिलता है, फिर यहां सिंह मृत्यु के रूप में आया है, यहीं पर जीवन का त्याग होगा। घत्ता-कुमार वरांग ने बारह अनुप्रेक्षाओं को मन में धारण करके भाग्य के योग अनुसार मरण के लिए प्रतिज्ञा की। मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक, रीतिपूर्वक पंच नमस्कार मंत्र का स्मरण करता है। ___दुवई-कुमार वरांग तालाब के अंदर धनुष-बाण सहित एक स्त्री को देखकर अपने मन में विचार करता है कि मैं अपनी शक्ति से (स्वयं की) रक्षा करूंगा।
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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