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________________ वरंगचरिउ 103 जिसके यहां धनवान कुरूप हो तो भी उसका प्रवेश होता है लेकिन निर्धन रूपवान होने पर भी निष्कासित किया जाता है। वह वेश्या एक के साथं रमण करती है और अन्य एक का चिंतन करती है, लज्जा से रमण करते हुए कोढ़ी होती है। वेश्या के अंगरूप के बारे में क्या कहा जाये, विधाता ने तो उसमें पापों का समूह निर्मित किया है। उसको सभी प्रिय हैं जो रमण करते हैं, वे निश्चित ही कुयोनि में जाते हैं। घत्ता-जो लज्जित होते हुए सेवन करते हैं एवं सुख मानते हैं, वह उनका करोड़ों का सोना खा जाती है, वह वेश्या अठारह (वसुदह) दोषों का पिण्ड है, उसके द्वारा व्यक्ति अपमान के शब्द सुनने पर भी उसे प्राप्त करना चाहता है। ___13. शिकार और चोरी-व्यसन का स्वरूप वणिक् पुत्र जिसका नाम चारुदत्त है, वेश्या के घर में प्रविष्ट होकर अनुरक्त प्रेमी हुआ और दुःख को प्राप्त करता है। इस प्रकार लज्जित होकर स्वभाव को प्राप्त करो और व्रत के कारण पाप-सम्पदा की रमणता का त्याग करना चाहिए। इस प्रकार 'राजा' सुनो-व्यसन ही सम्पूर्ण सिद्धियों का विध्वंसक है। वन में बहुत से जीव निवास करते हैं, तिर्यंच भी यही अवस्था को प्राप्त करते हैं, वे वस्त्रादि से हीन और निर्दोष हैं, समय पर जिनको तिनकादि भी प्राप्त नहीं होता है जो उनका संहार करके पाप-कर्म करता है, उसके समान अन्य कोई पापी नहीं है। यह शिकारी चतुर्गति में उसी प्रकार भ्रमण करता है, जिस प्रकार पृथ्वी पहरों में चलती है। जिस प्रकार सभी के लिए अपना जीवन प्रिय होता है, उसी प्रकार उसे गर्व करके किसी का घात नहीं करना चाहिए। शिकारी कुत्सित पर्याय को प्राप्त करता है और दूसरे के जीवन का घात करता है। प्राणी मरण के भय से (थर-थर) कांपते हैं, वह क्यों तलवार से जीवों को ताड़ित किया करता है। जो दूसरे जीवों का प्राणहरण करते हैं, वह अपने जीवन के सुख को जला देते हैं। ऐसा जानकर जीव की रक्षा करना चाहिए। मन, वचन, काय और इन्द्रियों को वश में करना चाहिए। प्राणियों का वध करने पर भी, चक्रवर्ती सुभौम जो प्रचंड भुजाओं वाला था, छह खंड का राजा होते हुए वह भी धर्मराज के द्वारा काल कवलित किया गया। यहां तस्कर (चोर) के दोष सुनो- सभी लोग चोर के क्रोध को प्राप्त करते हैं, वह मुखिया के सिर को छेदन-भेदन कर देता है अथवा पैरों और हाथों को ईर्ष्या से छेदन कर देता है, उसे दूसरों के धन को चुराते हुए दया नहीं आती है। चोर के द्वारा मारे जाते हुए की कोई रक्षा नहीं करता। जो दूसरों का धन चुराता है एवं चुराने का स्मरण करता है, वह संसारवन में भूला हुआ है। . जैसे दूसरों की लक्ष्मी का अपहरण किया है, वैसे दूसरों का जीवन स्वयं ही ले लिया है। इहलोक और परलोक में ऐसे जीवों को दुःख का बंध होता है। चोरकर्म निश्चय ही भय का सागर
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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