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________________ 97 वरंगचरिउ चित्त भी नहीं लगाता है । अपनी स्त्री के ऊपर माला फेंकता है परन्तु परनारी के साथ बात भी नहीं करता है। अपनी स्त्री के लिए पान (ताम्बूल) देता है किन्तु पर- स्त्री के प्रति स्नेह अर्पित नहीं करता है। अपनी सीमा में रहकर भ्राताओं की स्त्रियों को आदर देता है। इस प्रकार कुमार परस्त्री के प्रति भाव रखता है । घत्ता-वह कुमार जो हरिकुल नभ का चन्द्रमा एवं तन्द्रा ( निद्रा) का घातक है, सुख भोगते हुए रहता है । प्रिय पत्नियों के साथ जिनदेव के चरणों की भक्ति के लिए जाने की पिताजी से आज्ञा ग्रहण करता है । 9. मुनि वन्दना के लिए प्रस्थान एक दिन धर्मसेन अपने साथियों के साथ भूमंडल पर श्रेष्ठता से बैठा हुआ था। जैसे पतंगा अंधकार के पद का पोषण करते हुए प्रसन्न रहता है वैसे ही द्वारपाल प्रसन्न मन से विनय पूर्वक कहता है-हे! नरपति (राजन्) मेरे भले वचनों को सुनो, तुम्हारा समय अच्छा है। वनपाल पुष्प लेकर आया था, उसकी काया हर्ष से रोमांचित थी मानो उसके वचन तीर्थ के समान थे। तुम्हारा आदेश हो तो मैं उसे लेकर आता हूँ। राजा ने कहा शीघ्र ही ले आइये । पुनः प्रतिहारी (द्वारपाल ) वनपाल के लिए कहता है - तुम्हें राजा ने शीघ्र बुलाया है । तब वनपाल वहां पर पहुंचता है जहां पर राजा धर्मसेन बैठा हुआ था । चरणों में प्रणाम करके, फूलों की टोकरी आगे क्षेपणकर, महीपति से विनती करता है - हे देव! नगर में मुनिराज पहुंचे हैं, जो वरदत्त गणधर नाम से प्रसिद्ध हैं । इन वचनों से नरपति आनंदित होता है एवं साथ जाकर दर्शन करता है। प्रथम तो परोक्ष रूप से मन में विनय करता है, पश्चात् आनंद की दुंदुभि बजवाता है। नगरवासी, स्वपरिजन (परिवारजन), पत्नी एवं पुत्रों को लेकर मन में भक्ति धारण कर, परिजनों के साथ जिनधर्म में आसक्त होकर, मोह रूपी शत्रु का हनन करने के लिए वरांग भी चलता है । घत्ता - वे सभी जाकर मुनिराज के दर्शन करते हैं, वे सभी मन में मुनि प्रवर की भक्ति धारण कर प्रसन्न होते हैं । सुख-दुःख को दिखाने वाले, शिवगति (मोक्ष) की भावना रखने वाले उन अवधिज्ञानी मुनिराज को नमस्कार किया । 10. मुनि वरदत्त द्वारा धार्मिक उपदेश नगरवासी लोक में श्रेष्ठ राजा धर्मसेन और परिजनों के साथ पृथ्वीतल (जमीन पर ) पर बैठता है। राजा भक्ति-भाव पूर्वक मुनिराज से पूछता है- हे गुणसागर! धर्म का स्वरूप कहिए । नृप के वचन सुनकर मुनिराज कहते हैं कि मोक्ष में जाना ही श्रेष्ठ धर्म है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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