SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आश्रव भावना ४. 'इन्द्रियाऽव्रतकषाययोगजाः, पञ्चपञ्चचतुरन्वितास्त्रयः। पञ्चविंशतिरसत्क्रिया इति, नेत्रवेदपरिसंख्ययाप्यमी। इन्द्रिय, अव्रत, कषाय और योग से उत्पन्न आस्रव क्रमशः पांच, पांच, चार और तीन तथा पच्चीस असत्क्रियाएं-इन सबको मिलाने पर आस्रव के बयालीस भेद होते हैं। ५. 'इत्याश्रवाणामधिगम्य तत्त्वं, निश्चित्य सत्त्वं श्रुतिसन्निधानात्। एषां निरोधे विगलद्विरोधे, सर्वात्मना द्राग्यतितव्यमात्मन्!।। हे आत्मन! तू श्रुत-साहचर्य से आस्रवों के तत्त्व को जानकर और अपने सत्त्व का निश्चय कर, विरोधभाव से मुक्त होकर इनका निरोध करने में सर्वात्मना शीघ्रता से प्रयत्न कर। गीतिका ७ : धनाश्रीरागेण गीयतेपरिहरणीया रे! सुकृतिभिराश्रवा, हृदि समतामवधाय। प्रभवन्त्येते रे! भृशमुच्छृङ्खला, विभुगुणविभववधाय ॥१॥ पुण्यात्मा मनुष्यों को चाहिए कि वे अपने अन्तःकरण में समता धारकर आस्रवों का परिहार करें, अन्यथा ये अत्यधिक उच्छंखल आस्रव आत्मा के गुणवैभव का विनाश करने में समर्थ हो जाते हैं। कुगुरुनियुक्ता रे! कुमतिपरिप्लुताः, शिवपुरपथमपहाय। प्रयतन्तेऽमी रे! क्रियया दुष्टया, प्रत्युत शिवविरहाय॥२॥ जो लोग कुगुरु द्वारा नियोजित और कुमति से अभिभूत हैं, वे न केवल मोक्ष-मार्ग को छोड़ते हैं प्रत्युत अपनी दुष्टक्रिया के द्वारा मोक्ष से विमुख होने का प्रयत्न करते हैं। अविरतचित्ता रे! विषयवशीकृता, विषहन्ते विततानि। इह परलोके रे! कर्मविपाकजान्यविरलदुःखशतानि॥३॥ जिनका चित्त हिंसा आदि से अविरत है और जो इन्द्रिय-विषयों के १. रथोद्धता। २. इन्द्रवज्रा। ३. अत्र क्रियाभिप्रेयः कारकं दानपात्रम्। अतः चतुर्थी विभक्तिः।
SR No.032432
Book TitleShant Sudharas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2012
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy