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________________ शान्तसुधारस अधीन हैं वे लोग इहलोक और परलोक में कर्मविपाक से होने वाले, चारों ओर फैले हुए निरन्तर सैकड़ों दुःखों को सहन करते हैं। करिझषमधुपा रे! शलभमृगादयो, विषयविनोदरसेन। हन्त! लभन्ते रे! विविधा वेदना, बत! परिणतिविरसेन॥४॥ अत्यन्त खेद है कि प्राणी परिणाम में विरस विषय-क्रीड़ाओं के रस में लुब्ध होकर विविध वेदनाओं को पाते हैं, जैसे-हाथी स्पर्शनेन्द्रिय के कारण, मत्स्य जिह्वा के कारण, भ्रमर घ्राणेन्द्रिय के कारण, पतंग चक्षुरिन्द्रिय के कारण और हरिण आदि श्रोत्रेन्द्रिय के कारण। उदितकषाया रे! विषयवशीकृता, यान्ति महानरकेषु। परिवर्तन्ते रे! नियतमनन्तशो, जन्मजरामरकेषु॥५॥ प्रज्वलित कषाय वाले और विषयों से परवश व्यक्ति महानरकों में जाते हैं और निश्चितरूप से वे अनन्त बार जन्म, जरा और मृत्यु की परिक्रमा करते रहते हैं। मनसा वाचा रे! वपुषा चञ्चला, दुर्जयदुरितभरेण। उपलिप्यन्ते रे! तत आश्रवजये, यततां कृतमपरेण॥६॥ __ मन, वचन और शरीर से चंचल बने हुए व्यक्ति दुर्जेय पापसमूह से उपलिप्त होते हैं, अतः तू आस्रव-विजय का प्रयत्न कर। अन्य प्रयत्न से तुझे क्या? शुद्धा योगा रे! यदपि यतात्मनां, स्रवन्ते शुभकर्माणि। काञ्चननिगडांस्तान्यपि जानीयाद्, हतनिर्वृतिशर्माणि।॥७॥ संयमीपुरुषों के मन-वचन-काया के शुद्ध योग शुभ कर्मों का आस्रवण (आकर्षण) करते हैं। तू उन्हें भी मोक्षसुखों का उपघात करने वाली स्वर्ण की बेड़ियां जान। मोदस्वैवं रे! साश्रवपाप्मनां, रोधे धियमाधाय। शान्तसुधारसपानमनारतं, विनय! विधाय विधाय॥८॥ हे विनय! इस प्रकार तू आसवयुक्त पापों के निरोध में अपनी मति लगा और निरन्तर शान्तसुधारस का पान करके प्रसन्नता का अनुभव कर। १. मरकः-मृत्यु। 'मरको मारि....' (अभि. २/२३९)।
SR No.032432
Book TitleShant Sudharas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2012
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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