SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सातवां प्रकाश आस्रव भावना १. 'यथा सर्वतो निर्झरेरापतद्भिः, प्रपूर्येत सद्यः पयोभिस्तटाकः। तथैवाश्रवैः कर्मभिः संभृतोऽङ्गी, भवेद् व्याकुलश्चञ्चलः पंकिलश्च॥ जिस प्रकार तालाब चारों ओर से गिरते हुए निर्झर के पानी से शीघ्र परिपूरित हो जाता है, उसी प्रकार व्यक्ति आस्रवरूपी नाले से आने वाले कर्मों से संपूरित होकर व्याकुल, चंचल और पंकिल बन जाता है। २. यावत्किञ्चिदिवानुभूय तरसा कर्मेह निर्जीर्यते, तावच्चाश्रवशत्रवोऽनुसमयं, सिञ्चन्ति भूयोऽपि तत्। हा! कष्टं कथमाश्रवप्रतिभटाः शक्या निरोधुं मया? संसारादतिदारुणान्मम हहा! मुक्तिः कथं भाविनी? जब मैं कर्मफल का किंचित्-सा अनुभव कर अपनी शक्ति से कर्म की निर्जरा करता हूं तब सहसा आस्रवरूपी शत्रु बार-बार प्रतिक्षण कर्म-पुद्गलों का सिंचन कर देते हैं। अत्यधिक खेद है कि मैं उन आस्रवरूपी शत्रु-सैनिकों को कैसे रोक सकता हूं? आश्चर्य है, फिर इस दारुण संसार से मेरी मुक्ति किस प्रकार होगी? ३. मिथ्यात्वाऽविरतिकषाय-योगसंज्ञा श्चत्वारः सुकृतिभिराश्रवाः प्रदिष्टाः। कर्माणि प्रतिसमयं स्फुटैरमीभि र्बध्नन्तो भ्रमवशतो भ्रमन्ति जीवाः।। तत्त्ववेत्ताओं ने मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग-इन चार आस्रवों का प्ररूपण किया है। इन मुक्त आस्रवों से जीव अज्ञानवश प्रतिक्षण कर्मों का बंधन करते हुए भव-भ्रमण कर रहे हैं। १. भुजंगप्रयात। २. शार्दूलविक्रीडित। ३. प्रहर्षिणी।
SR No.032432
Book TitleShant Sudharas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2012
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy