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________________ २८ ४. 'दुष्टाः कष्टकदर्थनाः कति न ताः सोढास्त्वया संसृतौ, तिर्यग्नारकयोनिषु प्रतिहतश्छिन्नो विभिन्नो मुहुः। सर्वं तत्परकीयदुर्विलसितं विस्मृत्य तेष्वेव हा !, ५. रज्यन्मुह्यसि मूढ ! तानुपचरन्नात्मन्! न किं लज्जसे? हे आत्मन्! इस संसार चक्र में तूने कितनी भयंकर कष्टों की प्रताड़नाओं को नहीं सहा? तिर्यञ्च और नरकयोनि में तू बार-बार मारा-पीटा गया, छिन्न-भिन्न किया गया। खेद है कि दूसरों द्वारा की हुई उन सब दुश्चेष्टाओं को भूलकर तू उन्हीं में अनुरक्त होता हुआ मूढ हो रहा है। हे मूढ! क्या तुझे उन पदार्थों का आसेवन करते हुए लज्जा का अनुभव नहीं होता ? शान्तसुधारस 'ज्ञानदर्शनचारित्रकेतनां चेतनां विना । सर्वमन्यद् विनिश्चित्य, यतस्व स्वहिताऽऽप्तये ॥ ज्ञान-दर्शन-चारित्र लक्षण वाली चेतना के बिना सब पराया है, ऐसा निश्चय कर तू अपने कल्याण की प्राप्ति के लिए प्रयत्न कर। गीतिका ५ : श्रीरागेण गीयते विनय ! निभालय निजभवनं, तनुधनसुतसदनस्वजनादिषु । किं निजमिह कुगतेरवनम् ? ॥१॥ हे विनय! तू अपना घर देख । इस संसार में शरीर, धन, पुत्र, मकान और स्वजन आदि कौन-सा अपना है, जो दुर्गति से उबार सके। येन सहाश्रयसेऽतिविमोहादिदमहमित्यविभेदम्। तदपि शरीरं नियतमधीरं त्यजति भवन्तं धृतखेदम् ॥२॥ अत्यधिक विमूढता के कारण तू जिस शरीर के साथ 'यह मैं हूं' इस अभिन्नता का अनुभव कर रहा है, वही शरीर निश्चित ही तुझे छोड़ देता है, फिर तू कितना ही अधीर बन और कितनी ही दीनता का प्रदर्शन कर । जन्मनि जन्मनि विविधपरिग्रहमुपचिनुषे च कुटुम्बम् । तेषु भवन्तं परभवगमने, नानुसरति कृशमपि शुम्बम् ॥३॥ १. शार्दूलविक्रीडित । २. अनुष्टुप् ।
SR No.032432
Book TitleShant Sudharas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2012
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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