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________________ पांचवां प्रकाश अन्यत्व भावना १. परः प्रविष्टः कुरुते विनाशं, लोकोक्तिरेषा न मृषेति मन्ये। निर्विश्य कर्माणुभिरस्य किं किं, ज्ञानात्मनो नो समपादि कष्टम्। 'अपने घर में घुसा हुआ दूसरा व्यक्ति विनाश करता है' यह लोकोक्ति मृषा नहीं है, ऐसा मैं मानता हूं। कर्मपुद्गल उस ज्ञानमय आत्मा में प्रविष्ट होकर उसे क्या-क्या कष्ट नहीं देते? २. खिद्यसे ननु किमन्यकथार्त्तः, सर्वदैव ममतापरतन्त्रः। चिन्तयस्यनुपमान् कथमात्मन्! आत्मनो गुणमणीन्न कदापि।। हे आत्मन्! तू दूसरों की कथा-वार्ता से पीड़ित होकर और सदा ही ममता से पराधीन होकर क्यों खिन्न हो रहा है? तू आत्मा के ज्ञान-दर्शनचारित्रमय अनुपम गुणमणियों का क्यों कभी चिन्तन नहीं करता? ३. 'यस्मै त्वं यतसे बिभेसि च यतो यत्राऽनिशं मोदसे, यद्यच्छोचसि यद्यदिच्छसि हृदा यत्प्राप्य पेप्रीयसे। स्निग्धो येषु निजस्वभावममलं निर्लोठ्य लालप्यसे, __तत्सर्वं परकीयमेव भगवन्नात्मन्! न किञ्चित्तव।। हे ज्ञानमय आत्मन्! जिसके लिए तू प्रयत्न करता है, जिससे तू डरता है, जिसमें तू सतत मोद मनाता है, जिसके विषय में तू सोचता है, जिसको तू हृदय से चाहता है, जिसे पाकर तू प्रीणित होता है और जिन पदार्थों में आसक्त होकर तू अपने निर्मल स्वभाव को छोड़ प्रलाप करता है, वे सब पराए ही हैं, तेरा अपना कुछ भी नहीं है। १. उपजाति। २. स्वागता। ३. शार्दूलविक्रीडित।
SR No.032432
Book TitleShant Sudharas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2012
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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