SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११० शान्तसुधारस किन्तु पीड़ा बढ़ती ही गई। सभी उपाय मेरे लिए अर्थशून्य और निष्फल थे। मैं रोगशय्या पर लेटा हुआ जलविहीन मछली की भांति अत्यधिक पीड़ा से तड़प रहा था। मेरा अन्तर्मानस कष्ट से संतप्त बना हुआ कराह रहा था। मैं अपने आपको असहाय-सा अनुभव कर रहा था। उस समय कोई मुझे परित्राण देने वाला, क्षणभर के लिए भी मेरे कष्ट को बंटाने वाला नहीं था। मेरा म्लानमुख और दीनता भरी आंखें चारों ओर शरण पाने के लिए दौड़ रही थीं। जिस प्रकार चन्द्रमा अकेला ही राहुग्रास का अनुभव करता है, उसी प्रकार मैं भी अपने कर्मविपाक का एकाकी अनुभव कर रहा था। अन्ततः मेरे सामने एक ही शरण सूत्र था-धर्म का अवलम्बन। मेरा अन्तःकरण गुनगुना रहा था अरहते सरणं पवज्जामि, सिद्धे सरणं पवज्जामि, साहू सरणं पवज्जामि, केवलिपन्नत्तं धम्मं सरणं पवज्जामि।। मैंने मन-ही-मन संकल्प किया कि यदि मैं इस व्याधि से मुक्त हो जाऊं तो मैं इस चतुरंग शरण को आत्मसात् कर लूंगा। संकल्प की बलवत्ता ने मुझे मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य प्रदान किया और मेरे चरण जन्म, जरा और मृत्यु से अमरत्व पाने के लिए प्रस्थित हो गए। मेरी चेतना उस शरण में विलीन हो गई, जहां न कोई हीन है और न कोई दीन, न कोई कष्ट है और न कोई भय, न कोई रोग है और न कोई संताप। सभी अर्हताएं विद्यमान हैं उस शरण में और सबका समीकरण है उस शरण में। महाराज श्रेणिक महामुनि की घटित घटना का श्रवण कर सत्य का साक्षात्कार कर रहे थे। उनके नाथ बनने का दर्प चूर-चूर हो गया था। वे अनाथता के कटघरे में खड़े होकर अपने आपको नाथ होने का पश्चात्ताप कर रहे थे और अनुभव कर रहे थे सत्य की ओट में छिपे अज्ञान का। उनका अन्तर्मानस महामुनि के चरणों में प्रणत होता हुआ बोल उठा-प्रभो! आप सबके नाथ हैं, बान्धव हैं। मेरे अंतर्चक्षु नाथ और अनाथ की भेदरेखा को जान चुके हैं। अब तक मैं अपने अहंभाव के कारण ही नाथ होने का दावा कर रहा था। किन्तु नाथ वह होता है, जो जितेन्द्रिय हो, जितात्मा हो और जिसका चित्त सुसमाहित हो चुका हो। आप जिनपथ के शरणागत हैं, इसलिए आप सबके शरण है, त्राण हैं और रक्षक हैं। महामुनि अपने ही आलोक में अपने आपको देख रहे थे और राजा श्रेणिक देख रहे थे उनके आलोक से आलोकित होकर उस महामनीषी को। पुनः पुनः उनके अन्तर में महामुनि का मंगलमय स्वर प्रतिध्वनित होता रहा और क्रीड़ा करता रहा सबको त्राण-परित्राण देने वाला शरणसूत्र-अरहंते सरणं पवज्जामि...।
SR No.032432
Book TitleShant Sudharas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2012
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy