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________________ धम्मं सरणं पवज्जामि १०९ साधुत्व के परिवेश को। आओ मेरे साथ। आज से मैं आपका नाथ हूं, रक्षक हूं। जीवनभर आपकी अनुपालना और देखरेख करूंगा। आपकी सारी रक्षा का उत्तरदायित्व मेरे अधिकार में रहेगा। ____ महामुनि कुछ हंसे और बोले-महाराज! आप स्वयं ही अनाथ हैं, फिर मेरे नाथ बनने की परिकल्पना करते हैं? कितनी विडम्बना है! आप मेरे नाथ बनना चाहते हैं, किन्तु आप स्वयं ही अनाथ हैं, अरक्षित हैं, अशरण हैं। राजा का मन मुनि के इस रहस्यमय पहेली में उलझ गया। वे पुनः बोले-भन्ते! लगता है आपने मुझे पहचाना नहीं। मैं मगध का सम्राट्, एकछत्र शासन करने वाला, जिसके इंगित पर हजारों-हजारों मनुष्य प्राणों की आहुति देने वाले, जिसके हाथों से लाखों-लाखों मनुष्य अपना पेट भरने वाले और जिसके बाहुबल से सारा मगध जनपद अपने आपको सुरक्षित और दुःखमुक्ति का अनुभव करने वाला, फिर मैं अनाथ, अरक्षित और अत्राण! समझ नहीं सका आपके इस कथन को। महामुनि राजन्! मैं आपको भलीभांति जानता हूं। आप सब कुछ हैं, फिर भी वास्तव में अनाथ हैं। आप ही क्या, यह सारा संसार ही अनाथ है। कौन किसका रक्षक और कौन किसका पालक है? व्यक्ति अपने तोष के लिए मान लेता है कि मैं ही सब कुछ हूं। वास्तव में यह उसका कोरा अहंकार और मतिभ्रम ही है। यदि आप सत्य जानना चाहें तो मेरे जीवनवृत्त को सुनें मैं कौशाम्बी का श्रेष्ठिपुत्र हैं। मेरे पिता एक अच्छे व्यवसायी थे। दर देशों में उनका व्यापार चलता था। मुझे धनधान्य की प्रचुरता, भोगोपभोग की विविधता, माता-पिता का अतुल स्नेह, परिवारिकजनों का सौहार्द तथा पत्नियों का अटूट प्रेम आदि सब कुछ मिला। मैंने क्षणभर भी किसी दुःख या अभाव का अनुभव नहीं किया। कभी सोचा ही नहीं कि दुनिया में कोई कष्ट भी होता है। पारिवारिक सुखसंपदा मेरे लिए जितनी सुखकारी थी, उतना ही सुखकर था शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक स्वास्थ्य। उसी के कारण मेरा अहंकार भी बढ़ता चला गया। न मेरा धर्म में विश्वास था और न कर्म में। अपने जीवन के पचीस वसन्त मैंने निर्बाधरूप से प्रचुर ऐश्वर्य और सांसारिक भोगों में व्यतीत किए। एक दिन मैं अपने मित्रों के साथ क्रीड़ा कर रहा था। सहसा आंखों में वेदना का अनुभव हआ। वेदना के साथ ही मेरे पर तुषारपात-सा हो गया। मैंने कभी सोचा ही नहीं कि ऐसा भी हो सकता है। शीघ्र ही मुझे घर लौटना पड़ा। पारिवारिकजन मेरी पीड़ा से चिंतातुर थे। अनेक कुशल अनुभवी वैद्यों को निमंत्रित किया गया। औषधोपचार प्रारम्भ हुआ,
SR No.032432
Book TitleShant Sudharas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2012
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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