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________________ जैनेतर ग्रन्थ मनुस्मृति और उसके टीकाकारों ने जीवन काल को सतयुग त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग ऐसे चार भागों में विभक्त किया है तथा उनका कालमान भी निर्धारित है। आधुनिक विज्ञान की उत्पत्ति, विकास और विनाश, पांचवें आरे की समाप्ति और छठे आरे की शुरुआत, वातावरण प्रदूषित, सूर्य से अल्ट्रावायोलेट किरणों का सीधा धरती पर आना, मनुष्य तथा प्राणियों का भूगर्भ में रहना, वनस्पति का नाश होना, जीवन की अत्यंत विकट परिस्थिति। डार्विन के उत्क्रांतिकाल का आदि बिन्दु और जैन कालचक्र के अवसर्पिणी विभाग का आदि बिन्दु प्रथम आरा की शुरुआत। पृथ्वी का प्रथम आरा निर्माणकाल, दूसरा आरा जीवन की उत्पत्ति, तीसरा आरा वातावरण में ऑक्सीजन का निर्माण, चौथे आरे का उद्भव । कॉस्मिक कलेन्डर में एक ही विभाग है। उसे उत्क्रांति काल कहा है। मानव समाज की बौद्धिक, भौतिक, वैज्ञानिक परिस्थिति के आधार पर उत्क्रांति काल नाम दिया है। जैन कालचक्र के दो विभाग हैं-उत्सर्पणअवसर्पण। वर्तमान कालखंड अवसर्पण का एक भाग है। अवसर्पिणी (HypoSerpantine Ere) में जैविक परिवर्तन ही नहीं होता अपितु भौतिक पदार्थों में वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, संस्थान, सुख आदि का क्रमशः ह्रास होता है। ___ महापुराण में जब बाहुबल, वैभव, मनुष्य, शरीर, धर्मज्ञान, गांभीर्य, धैर्य बढ़ते हैं वह समय उत्सर्पण काल कहलाता है। काल परिवर्तन से विकास क्रम में भी कहां तक परिवर्तन एवं कितने स्तर तक होता है। आगम साहित्य, पुराण साहित्य, कुछ टीकाओं में भी उपलब्ध है। आइंस्टीन के चक्रीय विश्व सिद्धांत की चर्चा में विश्व को निर्माण और ध्वंस के अनन्त चक्रों में से गुजरना होता है। चक्रीय विश्व-सिद्धांत और उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी के सिद्धांत में अधिकतम सामंजस्य रहता है। जीवों का क्रमिक विकास जैन दर्शन में जीवों की प्राथमिक अवस्था 'अव्यवहार राशि' है। जिसे जीवों का अक्षय कोष कहा जाता है। वृहत्संग्रहणी में कहा है गोला य असंखिज्जा, अस्संख निगोअओ हवइ गोलो।। एक्केकम्मि निगोए, अणंत जीवा मुणेयव्वा।। ३०१।। विकासवाद : एक आरोहण १७७.
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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