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________________ उपनिषदों में, आत्मा के त्रैकालिक अस्तित्व एवं पुनर्जन्म के विषय में सूक्ष्म चिंतन मिलता है। जो प्रभावोत्पादक है। वेदांत में - देह एवं आत्मा में 'व्यतिरेक' है, क्योंकि देह एवं आत्मा में तद्भाव 'मैं वही हूं' इस प्रतीति का अभाव है। जो सत् है उसका अभाव नहीं होता, रूपान्तरण होता है। आत्मा का पर्याय परिवर्तन ही पुनर्जन्म है। श्वेताश्वतर उपनिषद ̈ में आत्मा न स्त्री है न पुरुष और न नपुंसक । जिस शरीर से युक्त होता है उसे उसी अभिधा से अभिहित करते हैं । योग दर्शन' में कर्माशय और वासना का भेद व्यक्त करते हुए लिखा हैएक जन्म में संचित कर्म को कर्माशय कहते हैं और अनेक जन्मों के कर्म संस्कार की परम्परा को वासना । कर्माशय का विपाक दो प्रकार से होता है। जिसका विपाक दूसरे जन्म में हो वह अदृष्ट जन्म वेदनीय तथा इस जन्म में विपाक हो उसे दृष्ट जन्म वेदनीय कहा जाता है । वासना की परम्परा अनादि है । महाभारत - मरने पर जीव तत्काल अन्य लोक में चला जाता है। एक क्षण के लिये भी वह असंसारी नहीं रहता । रघुवंश " - संतान प्राप्ति के बाद सूर्य की ओर देखती हुई मैं वेसा तप करूंगी जिससे जन्मान्तर भी आप मेरे पति ही हों, मेरा आप से वियोग न हो । बौद्ध दर्शन में पूर्वजन्म की घटनाओं का महत्त्वपूर्ण वर्णन है । उनके अनुसार कुशल कर्म सुगति और अकुशल कर्म दुर्गति का कारण है । प्रतीत्य समुत्पाद पुनर्जन्म की संपूर्ण व्याख्या करता है। उसमें पुनर्जन्म का कारण अविद्या और संस्कार को माना है। बुद्ध ने कहा- हे भिक्षुओ ! चार आर्य सत्य के प्रतिवेद्य न होने से दीर्घकाल से मेरा और तुम्हारा आवागमन - संसरण हो रहा है। " जब तक कर्म समाप्त नहीं होते, तब तक एक जीवन से दूसरे जीवन में उनका परिणाम मिलता है। भारतीय चिन्तकों ने जन्म-मरण का हेतु सूक्ष्म शरीर (लिङ्ग शरीर) माना है । जैन दर्शन में उसे कार्मण शरीर कहा है । अन्य चार शरीरों की अपेक्षा यह सूक्ष्मतर है। विभिन्न योनियों में परिभ्रमण का निमित्त यही शरीर है। १२ सांख्य कारिका के भाष्य में वाचस्पति मिश्र ने कहा- लिंग शरीर बारबार स्थूल शरीर को ग्रहण करता है । पूर्व शरीर का त्याग करता है। इसी का जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन • १४२०
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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