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________________ नाम संसरण है। मृत्यु होने पर लिंग शरीर का नाश नहीं होता । पूर्व जन्म के अनुभव तथा कर्म के संस्कार लिंग शरीर में विद्यमान रहते हैं । १३ १४ न्याय-वैशेषिक के अनुसार- आत्मा व्यापक है। धर्म-अधर्म रूप प्रवृत्तिजन्य संस्कार मन में निहित रहते हैं। आत्मा और मन का जहां तक सम्बन्ध है, वहां तक पुनर्जन्म है। मीमांसा दर्शन में मन को पुनर्जन्म का कारण मान कर उसकी व्याख्या की है। महर्षि अरविंद" के अभिमत से - पुनर्जन्म हमारे अनेक शरीरों में होने वाले आंतरिक अस्तित्व की याद दिलाता है । पुनर्जन्म का सारा धारावाहिक क्रम इच्छा, कर्म एवं परिणाम पर आधारित है। इस्लाम एवं ईसाइयों ने पुनर्जन्म की स्पष्ट घोषणा नहीं की किन्तु पूर्ण निषेध भी नहीं मिलता है। दार्शनिक कवि जलालुद्दीन १६ रूमी ने पुनर्देहागमन के विषय में लिखा- मैंने सात सौ बार जन्म धारण किया है। मैं खनिज पदार्थ के रूप में मरा और वनस्पति के राज्य में प्रविष्ट हुआ। पौधे के रूप में जन्मा तो कभी पशु योनि में। वहां से मृत्यु पाकर इन्सान बना। अब मैं मृत्यु से क्यों डरूं ? मृत्यु के द्वारा खो जाने का क्या डर है ? मैं फिर इन्सान बनकर मरूंगा । फिर देवदूत से ऊपर उठकर कल्पनातीत स्थिति को प्राप्त करूंगा। इस प्रकार हम देखते हैं चार्वाक के अतिरिक्त कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धांत पर प्रायः सभी दार्शनिक एकमत हैं। पुनर्जन्म का कारण जैन दर्शन में पुनर्जन्म का कारण कर्म विपाक है। चैतन्य पर कर्मों का सघन आवरण रहेगा तब तक प्राणी को नाना अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है कर्मावरण क्षीण होने पर मुक्ति है । 2 उत्तराध्ययन सूत्र में इक्षुकार, मृगापुत्र की घटनाएं, ज्ञातासूत्र में तेल पुत्र ७, सुमेरुप्रभ हाथी ८, राजा प्रतिबुद्धि९, नंद मणियार, तीर्थंकर मल्ली२१ आदि का वर्णन पुनर्जन्म और शुभाशुभ कर्म का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध स्पष्ट करता है। आत्मा के विविध रूपों एवं अवस्थाओं का प्रतिपादन है। इसी प्रकार नागश्री२२ सुकुमालिका, और द्रौपदी कर्म परम्परा से जुड़ी एक ही आत्मा की विविध अवस्थाएं हैं। पुनर्जन्म : अवधारणा और आधार १४३०
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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