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________________ 3 पश्चिम दिशा से उत्तर से आया या दक्षिण से ? पूर्वजन्म में मैं कौन था ? आगे क्या बनूंगा? इससे स्पष्ट है कि आगमों में पुनर्जन्म के सिद्धांत की प्रतिष्ठा ही नहीं हुई बल्कि दूसरों को अनुभव कराया जा सके ऐसे प्रयोग भी हु हैं । भारतीय साहित्य में पूर्वजन्म, पुनर्जन्म की हजारों कथाएं हैं। तीर्थंकर चरित्र में तीर्थंकरों के भवान्तरों का संक्षिप्त वर्णन है । भ. पार्श्वनाथ के दस भवों का विवेचन कल्पसूत्र टीका, त्रिषष्टि शलाका पुरुष चारित्र आदि शास्त्रोंग्रन्थों में मिलता है। भ. पार्श्वनाथ के साथ कमठ असुर की कई जन्मों तक वैरपरम्परा बनी रही है। भ. महावीर के पूर्व भवों का उल्लेख आवश्यक निर्युक्ति, विशेषावश्यक भाष्य, आवश्यक चूर्णि, आवश्यक हरिभद्रीयवृत्ति, आवश्यक मलयगिरि वृत्ति आदि में मिलता है । कल्पसूत्र की टीकाओं में भी २७ भवों (जन्मों) का विवेचन है। ये घटनाएं पूर्वजन्म की साक्ष्य हैं। तीर्थंकरों का विकास एक जन्म की कहानी नहीं, जन्म जन्मान्तर के संस्कारों का संस्करण है। पंचास्तिकाय में निरूपित - पूर्वजन्म - पुनर्जन्म की यात्रा में शरीर बदलता है, आत्मा नहीं। आत्मा पूर्व पर्याय में थी वही उत्तर पर्याय में है । आत्मा का रूपान्तरण नहीं, पर्याय का रूपान्तरण होता है। पर्याय परिवर्तन का अनुभव अधिकांश जीवों को नहीं होता । तीर्थंकर महावीर ने श्रेणिक पुत्र मेघकुमार जो श्रमण दीक्षा की प्रथम रात्रि में ही कुछ कारणों से अस्थिर चित्त बन गया था, महावीर ने उसे पूर्वजन्म की स्मृति कराकर साधना में पुनः स्थिर किया । इस प्रकार शास्त्रसम्मत अनेक घटनाएं हैं जो इस तथ्य को उजागर करती हैं कि शरीर के नष्ट होने पर भी आत्मा का अस्तित्व है। कर्म और पुनर्जन्म दोनों सापेक्ष हैं। एक के अभाव में दूसरे का अस्तित्व नहीं टिकता । भारतीय दर्शनों में पुनर्जन्म (Reincarnation ) भारतीय चिन्तकों ने अनेक युक्तियों से पुनर्जन्म के सिद्धांत को सिद्ध किया है। यह उनका विवेच्य विषय रहा है। जैनागम, पुराण, महाकाव्य, नाटक, स्तोत्र, वेद, उपनिषद् आदि में पुनर्जन्म सम्बन्धी विवेचन तथा अनेक घटनाओं का उल्लेख है। मनुस्मृति' में कहा है- प्राणी के कार्य में जिस गुण की प्रधानता होती है, उसी के अनुरूप वह देह धारण करता है और उसका उपभोग करता है । कोई भी कर्म अपना प्रभाव दिखाये बिना नहीं रहता । पुनर्जन्म : अवधारणा और आधार १४१०
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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