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________________ इस चक्र को ही पुनर्जन्म कहते है । धार्मिक आस्था से लेकर परामनोविज्ञान तक सबके समक्ष प्रश्न है, मृत्यु के बाद भी कोई जीवन है ? क्या वर्तमान जीवन को किसी परम्परा की कड़ी के रूप में जी रहे हैं ? क्या अतीत के गर्भ में कोई अस्तित्व था ? और अनागत में रहेगा ? इन प्रश्नों का समाधान जैन दर्शन के अनुसार करना ही उचित रहेगा। जन्म-मृत्यु का कारक है - आयुष्य कर्म। आयुष्य कर्म का स्वभाव गृह की तरह है। अपराधी व्यक्ति को दण्ड स्वरूप एक निश्चित अवधि के लिये कारागृह में डाला जाता है । अवधि समाप्त हुए बिना वह वहां से मुक्त नहीं हो सकता। वैसे ही जीव को निर्धारित अवधि तक देह के कारागृह में रहना पड़ता है। अवधि पूर्ण होने पर मृत्यु हो जाती है । मरण ही उसे देह - पर्याय से देता है। कर्म - पुनर्जन्म (Reincernation) चेतन का अस्तित्व और प्राणी का व्यक्तित्व दोनों की सम्यक् व्याख्या के लिये जैन आगमों में कर्मवाद की अवधारणा है। अतीत के धरातल पर जन्मों की जो यात्रा की, वर्तमान जीवन के उत्थान - पतन, आरोह-अवरोह, संस्कारों का उत्सर्पण-अवसर्पण की प्रक्रिया को कर्मवाद एक निश्चित आकार देता है। जन्म के प्रथम उच्छ्वास से लेकर अंतिम सांस तक घटित घटनाओं, दुर्घटनाओं, परिस्थितियों के उपादान कारण के रूप में कर्म की व्याख्या है। पलने से अरथी तक की यात्रा कर्म महापथ से होकर गुजरती है। प्राणी' जो कुछ भी करता है । सारी प्रवृत्तियों का मूलाधार पूर्वकृत कर्म हैं । पूर्वकृत कर्म इस जन्म के, सैकड़ों-हजारों जन्मों के पूर्ववर्ती संस्कारों की एक अविच्छिन्न परम्परा के रूप में चल रहे हैं। जैन मान्यता में पूर्व जन्म की प्रस्तुति कर्मवाद की आधारशिला पर टिकी है। कर्म अतीत और अनागत का सेतुबंध है। मौलिक प्रश्न है, क्या हमें पूर्वजन्म का बोध होता है ? क्या जन्मजन्मान्तर की यात्रा में उन पड़ावों ठहरावों के बारे में जान सकते हैं, जहां आत्मा ने कुछ समय के लिये विश्राम लिया था ? इस संदर्भ में आचारांग सूत्र का जम्बू-सुधर्मा संवाद द्रष्टव्य है । जंबू के प्रश्न आर्य सुधर्मा समाहित करते हुए कहते हैं - मैंने महावीर से सुना-संसार में प्राणियों को यह ज्ञात नहीं होता कि मैं पूर्व दिशा से आया था या जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन • १४००
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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