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________________ जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद छठी सदी ई. पू. में मुकदमों में झूठी गवाही आदि भी प्रचलित थी । उपासकदशा में श्रावकों को मुकदमे में झूठी गवाही और झूठे दस्तावेजों आदि पर उसके नियम दिलाए जाते थे । ( उपासकदशा, 1.33 [151])। 48 सैनिक संगठन महाजनपदों एवं अन्य राज्यों में पारस्परिक सीमांत संघर्ष होते रहते थे । साम्राज्यवादी मगध, कौशल, वत्स, अवन्ति आदि की सत्ता लिप्सा के कारण इस • समय सैनिक संगठन दृढ़ हो गए थे। सुरक्षा की दृष्टि से उस समय राज्य विभागों में सैनिक प्रशासन बढ़ता गया । ' भगवती में सेना के मुख्य चार विभाग - रथ (रह), गज ( गय), अश्व ( हय) एवं पदाति ( पयात्ति) बताये हैं ( भगवती, 7.9, 174-175 [152]) । सामान्यतः युद्ध को अच्छा नहीं समझा जाता था । साम, दाम, दण्ड एवं भेद नीतियां जिसको उपयोग में लिया जाता था । इन नीतियों में सफलता न मिलने पर ही युद्ध की घोषणा होती थी । लड़ाई शुरू होने से पूर्व दूत द्वारा अपनी मांगें विरोधी के समक्ष संदेशित की जाती थी । कूणिक अजातशत्रु ने चेटक के समक्ष युद्ध से पहले तीन बार दूत भेजे थे । किन्तु बात नहीं बनने पर अन्त में दूत ने भाले की नोक पर कूणिक के पत्र को पीठिका पर बायां पैर रखकर चेटक को सुपुर्द किया (निरयावलिका, 1.116 [153]), और महाशिलाकंटक और रथमूसल जैसे भयंकर संग्राम हुए । इस युग में युद्ध कला विकसित स्थिति में थी । शत्रु को परास्त करने के लिए विभिन्न प्रकार के शस्त्र, व्यूह-रचनाएँ और नीति का प्रयोग किया जाता था। जैन आगमों में सेनाओं की साज-सज्जा और युद्ध - नीति पर विस्तृत चर्चा ई है। कूणिक अजातशत्रु ने वैशाली के वज्जिसंघ को परास्त करने हेतु उस समय के आधुनिक शस्त्रों से युक्त दो प्रकार के युद्ध 'महाशिलाकंटक' और 'रथमूसल' का सृजन किया । महाशिलाकंटक के द्वारा पत्थर के बड़े-बड़े टुकड़े शत्रु सेना पर बरसाये जाते थे, जैसे महाशिला हमारे ऊपर आ पड़ी है ( भगवती, 7.9.179 [ 154] ) । रथमूसल में रथचक्रों पर अतिरिक्त धूरे लगाकर उनके द्वारा शत्रुओं को कुचला 1. As wars and frontier troubles were very common in those days, the state had necessarily to keep and maintain a well-equipped and organized military force always at its conmand. K. C. Jain, Lord Mahāvāra and His Times, p. 222.
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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