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________________ 224 जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद ___ जो मन से प्रद्वेष करते हैं उनके कुशल-चित्त नहीं होता। अर्थात् उनका चित्त विशुद्धियुक्त नहीं है। फिर भी उनके कृत्य से कर्मोपचय नहीं होता-यह सिद्धान्त महावीर के मत में तथ्यपूर्ण नहीं है। वास्तविकता से परे है और इस सिद्धान्त का प्रतिपादन करने वाले संवृत्तचारी नहीं होते अर्थात् कर्म-बंध के हेतुओं में प्रवृत्त रहते हैं (सूत्रकृतांग, I.1.2.56 [606])। अवतारवाद 600 ई.पू. में एक ऐसे वाद का उल्लेख मिलता है, जिसके अनुसार कोई जीव मोक्ष प्राप्त कर लेने पर भी अपने धर्म-शासन की अपूजा देखकर अप्रसन्न होता है। इस प्रकार वह राग-द्वेष के वशीभूत होकर पुनः मनुष्य-भव में जन्म लेता है। इस जगत् में किन्हीं वादियों ने यह निरूपित किया है-आत्मा शुद्ध होकर अपापक-कर्म मल रहित या मुक्त हो जाता है। पुनः क्रीड़ा और प्रद्वेष से युक्त होकर मोक्ष में भी कर्म से बंध जाता है। इस मनुष्य जीवनकाल में जो जीव संवृत्त मुनि (संयम नियम से युक्त) होकर वह अपाप होता है। जैसे रजरहित निर्मल जल पुनः सरजस्क मलिन हो जाता है, वैसे ही वह आत्मा पुनः मलिन हो जाता है (सूत्रकृतांग, I.1.3.70-71 [607])। चूर्णिकार ने उक्त मत को त्रैराशिक सम्प्रदाय का कहा है (सूत्रकृतांगचूर्णि, पृ. 43 [608])। कोई जीव मोक्ष प्राप्त कर लेने पर भी अपने धर्म-शासन की पूजा और अन्यान्य धर्म-शासनों की अपूजा देखकर मन ही मन प्रसन्न होता है। अपने शासन की अपूजा देखकर वह अप्रसन्न भी होता है। इस प्रकार वह सूक्ष्म और आन्तरिक राग-द्वेष के वशीभूत होकर पुनः मनुष्य-भव में जन्म लेता है। जैसे स्वच्छ वस्त्र काम में आते-आते मैला होता है, वैसे ही वह राग-द्वेष की रजों के द्वारा मैला होकर संसार में अवतरित होता है। यहां मनुष्य भव में प्रव्रज्या ग्रहण कर, संवृत्तात्मा श्रमण होकर मुक्त हो जाता है और फिर संसार में अवतरित होता है। काल की लम्बी अवधि में यह क्रम चलता ही रहता है। उक्त मत के प्रकाश में आत्मा की तीन अवस्थाएँ दृष्टिगोचर होती हैं1. अशुद्ध आत्मा की अवस्था (राग-द्वेष सहित कर्म बंधन युक्त आत्म-स्थिति)
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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