SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 260
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महावीरकालीन अन्य मतवाद 223 से कोई प्रवृत्ति होती है या केवल शरीर से प्राणातिपात हो जाता है तो इसमें भी जीव निर्वाण प्राप्त कर लेता है। कुछ ऐसी ही विचारणा बौद्ध त्रिपिटकों में भी दृष्टिगत होती है। बालोवाद जातक का यह वक्तव्य कि-राग-द्वेष रहित कोई पुरुष अपने पुत्र तथा स्त्री को मारकर उस मांस का दान करे और प्रज्ञावान संयमी (भिक्षु) उस मांस का भक्षण करे तो भी उसे पाप नहीं लगता (खुद्दकनिकाय, बालोवाद जातक, पृ. 64 [602])। बौद्ध दृष्टि के अनुसार जहां कृत, कारित और अनुमोदन नहीं होता, वहां पर जीव का वध होने पर भी कर्म का चय (बंधन) नहीं होता। कोई मनुष्य खली की पिंडी को शूल में पिरो 'यह पुरुष है'-ऐसा सोच उसे पकाता है, तथा लोकी को भी ‘यह कुमार है'-ऐसा सोच उसे पकाता है, वह हमारे मतानुसार प्राणीवध से लिप्त होता है। अथवा कोई म्लेच्छ मनुष्य को 'यह खली है'-ऐसा सोच उसे शूल में पिरोकर पकाता है तथा कुमार को भी 'यह लोकी है'-ऐसा सोच उसे पकाता है, वह हमारे मतानुसार प्राणीवध से लिप्त नहीं होता है। पुरुष या बच्चे को कोई शूल में पिरो 'यह खली की पिंडी है' ऐसा सोच आग में पकाए, वह आहार बुद्धों के लिए योग्य है (सूत्रकृतांग, II.6.26-28 [603])। बौद्धों का यह कथन कि असंयमी गृहस्थ भिक्षु के जीवन के लिए पुत्र को मार कर मांस पकाता है, मेधावी भिक्षु द्वारा उक्त मांसाशन करना पापकर्म का कारण नहीं है, असंगत सिद्धान्त है। वस्तुतः भाव हिंसा भी मन में राग-द्वेष कषाय आदि के भाव आये बिना नहीं हो सकती और बौद्ध ग्रंथों में कर्म के उपचय करने में मन को ही प्रधान कारण माना है (धम्मपद, 1.1 [604])। कह सकते हैं कि बौद्ध परम्परा में इस सिद्धान्त में विरोधाभाषी मान्यता दिखाई देती है। यद्यपि यह भी सत्य है कि कोई साधक प्रमाद-रहित होकर सावधानी से उपयोगपूर्वक चर्या करता है। किसी जीव को मारने की मन में भावना नहीं है, तब तो वहां उसे जैन-सिद्धान्तानुसार पापकर्म का बन्ध नहीं होता (दशवैकालिक, 4.8 [605])। परन्तु सर्व-सामान्य व्यक्ति जो बिना उपयोग के प्रमादपूर्वक चलता है, उसमें चित्त-संक्लिष्ट होता ही है और वह व्यक्ति पापकर्मबन्ध से बच नहीं सकता। इसी प्रकार चित्त-संक्लिष्ट होने पर ही स्वप्न में किसी को मारने का उपक्रम होता है। अतः स्वप्नान्तिक कर्म में भी चित्त अशुद्ध होने से कर्मबन्ध होता ही है।
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy