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________________ नियतिवाद 177 तरह लटक रहे हैं, यह सिर्फ दैव विहित ही है। इस विषय में पुरुष पराक्रम का कोई प्रयोजन नहीं है। यदि पुरुष के यत्न करने पर भी किसी विषय में यदि कोई कार्य सिद्ध होवे, तो विशेष अनुसंधान करके देखने से वह दैवविहित करने से ही प्रतिपन्न होता है (महाभारत, शांतिपर्व, 177.2-14 [460])। यहां पर मंखलि गोशालक को मंकि ऋषि के रूप में चित्रित किया गया है जो द्रष्टाभाव और संसार के प्रति अनासक्ति को दर्शाता है। इसमें एक ओर नियतिवाद का समर्थन है वहीं दूसरी ओर इसमें वैराग्य का भी समर्थन है। इसके अतिरिक्त महाभारत में अनेक प्रसंगों में काल के रूप में भाव-अभाव, सुख-दुःख सबके मूल में नियति को स्वीकार किया है (महाभारत, आदिपर्व, 1.179 [461])। इस प्रकार नियति एक ऐसी अवधारणा है जिसमें प्रत्येक परम्परा के लोग किसी न किसी रूप में अवश्य विश्वास करते हैं। वस्तुतः नियति एक तत्त्व है। वह मिथ्यावाद नहीं है। नियतिवाद जो नियति का ही एकान्त आग्रह रखता है, वह मिथ्या है। 9. नियतिवाद की जैन दृष्टि से समीक्षा __जैन दार्शनिक जहां एक ओर नियतिवाद के पूर्व पक्ष की प्रस्तुति देने में दक्ष है उतनी ही दक्षता से वे इस वाद का खण्डन भी करते हैं। नियतिवाद को मानने वाले महावीर के मत में सुख दुःख की अनियत व्यवस्था को नहीं जानते अर्थात् कोई सुख-दुःख पूर्वकृतजन्य होने से नियत होते हैं तथा कोई सुख-दुःख पुरुष के उद्योग, काल आदि से उत्पन्न होने के कारण अनियत होते हैं। इसलिए एकान्त नियति को कारण मानना समुचित नहीं। इस प्रकार वे अज्ञानी हैं, इतने पर भी वे अपने आपको पंडित मानते हैं। वे साधना मार्ग में प्रवृत्त होकर भी दुःखों से छुटकारा नहीं पा सकते। ऐसे मिथ्यादृष्टि अनार्य साधक पूर्ण क्रोध, मान, माया और लोभ को नष्ट कर सिद्ध नहीं हो सकते और पाश से बद्ध मृग की भाँति अनन्त बार मृत्यु को प्राप्त होते हैं। अर्थात् जन्म-मरण के फेर में चक्कर काटते रहते हैं (सूत्रकृतांग, I.1.2.31-32, 39-40 [462] )। वे क्रिया-अक्रिया, साधु-असाधु, सिद्धि-असिद्धि आदि को नहीं जानते हुए विविध प्रकार के कर्मारंभों द्वारा कामभोगों में फँसे रहते हैं। कुछ लोग उन अनार्य मिथ्यादृष्टि साधकों के प्रति श्रद्धा व्यक्त कर उनकी पूजा में प्रवृत्त हो जाते हैं। यह सोच कि हम दीक्षित होकर पापकर्म नहीं करेंगे घर से विरत हो जाते हैं, किन्तु
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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