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________________ 178 जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद अणगार बन स्त्री संबंधी कामभोगों से मूर्छित, गृद्ध और रागद्वेष के वशवर्ती होकर स्वयं परिग्रह करते हैं, करवाते हैं और करने वाले का अनुमोदन करते हैं। इस प्रकार वे स्वयं कामभोगों से मुक्त नहीं हो पाते न दूसरों को मुक्त कर पाते (सूत्रकृतांग, II.1.45-47 [463] )। नियतिवादियों को सत्-अस्तित्व जो पदार्थ है, असत्-नास्तित्व जो पदार्थ नहीं है इस सम्बन्ध में यथार्थ विवेक नहीं है। वे ज्ञानशून्य हैं, वे बालक की तरह ज्ञानशून्य हैं, ऐसा होने के बावजूद वे अपने को पंडित ज्ञानी मानते हैं (सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ.61 [464])। नियतिवादी यद्यपि यह मानते हैं कि सब कुछ नियति से ही फलित होता है। फिर भी वे तरह तरह की वैसी क्रियाएं करने में प्रवृत्त रहते हैं, जिनका परलोक साधने से संबंध है। यह उनकी कितनी बडी धृष्टता है कि नियतिवादी सब कुछ नियति से ही होता है, इस सिद्धान्त को स्वीकार किये हुए हैं पर क्रियाएं ऐसी करते हैं जो सिद्धान्त से विपरीत है। अतएव परलोक को साधने वाली तथाकथित धर्म क्रियाओं में संलग्न होते हुए भी वे अपनी आत्मा को दुःख से नहीं छुड़ा सकते। कारण यह है कि वे सम्यक्-सत्श्रद्धान युक्त ज्ञान पूर्वक क्रिया में संलग्न नहीं हैं। अतः वे अपनी आत्मा को दुःख से मुक्त नहीं कर सकते (सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ.61 [465] )। संक्षेप में नियतिवाद का निराकरण इस प्रकार हैं1. नियतिवाद को स्वीकार करने पर शुभ क्रिया के पुरुषार्थ की आवश्यकता नहीं रहती, इसलिए नियतिवादी विप्रतिपन्न हैं। 2. नियति को अंगीकार करने पर हित की प्राप्ति एवं अहित के परिहार के लिए उपदेश निरर्थक हो जाता है। 3. नियति की एकरूपता होने पर कार्यों की अनेकरूपता सम्भव नहीं हो __ सकती। जैन दर्शन पूर्णतः नियतिवादी नहीं है। वह व्यक्ति के किए हुए कर्मों और उसके फल को नियति के अधीन नहीं मानता बल्कि स्वकृत मानता है। यहाँ उत्थान, बल, पुरुषार्थ को मान्य किया गया है (भगवती, 20.3.20 [466] )। जैनदर्शन किन्हीं अर्थों में नियति सिद्धान्त को मान्य भी करता है। जैनदर्शन के अनुसार निकाचित और अनिकाचित के रूप में कर्मों के दो भेद हैं।
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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