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________________ 176 जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद उत्तम कुल में जन्म, पुरुषार्थ, आरोग्य, सौन्दर्य, सौभाग्य, उपभोग, अप्रिय, वस्तुओं के साथ संयोग, अत्यन्त प्रिय वस्तुओं का वियोग, अर्थ, अनर्थ सुख और दुःख-इन सबकी प्राप्ति प्रारब्ध के विधान के अनुसार होती है। यहां तक की प्राणियों की उत्पत्ति, देहावसान, लाभ और हानि में भी प्रारब्ध ही प्रवृत्त होता है (महाभारत, शांतिपर्व, 28.18-19, 23 [457])। जीव की मृत्यु के कई निमित्त होते हैं, यथा-रोग, अग्नि, जल, शस्त्र, भूख, प्यास, विपत्ति, विष, ज्वर और ऊंचे स्थान से गिरना आदि। इन निमित्तो में से प्रत्येक जीव के लिए नियति द्वारा जन्म के समय ही नियत कर दिया जाता है और अन्त में वही उसकी मृत्यु का हेतु बनता है (महाभारत, शांतिपर्व, 28.25 [458])। दक्ष-पुरुषार्थी मनुष्यों के द्वारा सम्यक् प्रकार से किया गया प्रयत्न भी दैव रहित होने पर निष्फल हो जाता है तथा उस कार्य को अन्य प्रकार से किए जाने पर भी वह भाग्यवश और ही प्रकार का हो जाता है। अतः निश्चय ही दैव प्रबल और दुर्लघ्य है। दैव की इस प्रबलता को स्वीकार कर यह समझना चाहिए कि होनहार ही ऐसी थी, इसलिए शोक करने की आवश्यकता नहीं है। भला, इस सृष्टि में ऐसा कौनसा पुरुष है, जो अपनी बुद्धि की विशेषता से होनहार को मिटा सकता है अर्थात् कोई नहीं (महाभारत, सौप्तिकपर्व, 2.11, कर्णपर्व, 9.20, आदिपर्व, 1.246 [459])। महाभारत के “मंकि ऋषि" भाग्यवादी या दैववादी विचारधाराओं में आस्था रखने वाले थे। मंकि ऋषि पहले पुरुषार्थवादी थे किन्तु ऋषियों का पुरुषार्थ निष्फल साबित हुआ तब वे सब कुछ देव विहित या कृत मानने लगे। वहां नियतिवाद के पंच सिद्धान्तों का उल्लेख हुआ है-सर्वसाम्य (समभाव), अनायास, सत्यवाक्य, निर्वेद (कर्म के प्रति नितान्त उपेक्षा), अविवित्सा (आत्मा आदि के विषय में बौद्धिक प्रयत्न का परित्याग)-इन पांच विषयों को शांति का कारण कहकर इन्हें स्वर्ग, धर्म और अत्यन्त सुखस्वरूप माना है। इस सम्बन्ध में मंकि नामक ऋषि की विरक्ति का घटना प्रसंग आया है-मंकि ने धन की इच्छा से अनेक तरह के प्रयत्न किए किन्तु उनकी सारी कोशिश निष्फल गई तब बचे धन से (जुआ काष्ठ के) दमन योग्य दो बैल खरीदे किन्तु वे दोनों ऊँट के कंधे पर जा गिरे और ऊँट क्रोधयुक्त होकर उन दोनों को अपने ऊपर लटकाकर जोर से चलने लगा। यह देख मंकि ऋषि की पुरुष पराक्रम से आस्था हट गई और कहने लगा कि मेरे प्यारे बैल ऊँट के गले में मानो दो मणियों की
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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