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________________ नियतिवाद 169 फलों का भक्षण नहीं करते थे। पलाण्डु (प्याज), लहसुन कन्द और मूल का वर्जन करने वाले हैं, नपुंसक बनाए बिना, नाक का छेदन किए बिना, बैलों से खेत जोत कर त्रस जीवों की हिंसा न करते हुए कृषि द्वारा अपनी आजीवका चलाते हैं। बैलों को निल्छन नहीं करते, उनके नाक-कान का छेदन नहीं कराते व त्रस प्राणियों की हिंसा हो, ऐसा कोई कार्य नहीं करने का विधान बताया है (भगवती, 8.5.242 [437])। कन्दमूल का वर्जन आज भी जैन परम्परा में प्रचलन में है। यद्यपि यहां आजीवकों, उपासकों की त्रस हिंसा के वर्जन हेतु नियमों का विधान है तथापि जैन परम्परा में वर्णित सूक्ष्म हिंसा का निषेध जैसा कोई विधान नहीं है। वैसे सूक्ष्म हिंसा का वर्जन जैनों में भी श्रावक वर्ग पर इतना लागू नहीं होता, जितना साधु वर्ग पर। आजीवक अब्रह्मचारी न केवल जैन आगम अपितु बौद्ध त्रिपिटक दोनों ही मुक्त कंठ से आजीवक भिक्षुओं के अब्रह्म सेवन की पुष्टि करते हैं। सूत्रकृतांग में आर्द्रकीय अध्ययन में आर्द्रक के साथ अन्य तीर्थकों से चर्चा में किन्हीं के मत (आजीवक) में हमारे धर्म में एकान्तचारी यदि शीतोदक, बीजकाय, आधाकर्म तथा स्त्रियों का भी सेवन करे तब भी पापकर्म से लिप्त नहीं होता (सूत्रकृतांग, II.6.7 [438])। इसके अतिरिक्त भगवती से भी गोशालक के चरित्र विषयक अशुद्धि की पुष्टि होती है-भगवती के अनुसार गोशालक हालाहल नामक कुम्हारिन के घर आजीवक संघ से परिभूत होकर और आजीवक सिद्धान्त से अपनी आत्मा को भावित करते हुए रहता था (भगवती, 15.1.2 [439])। इस वक्तव्य के बारे में हॉर्नले का कहना है कि इस जैन वक्तव्य में सत्यता में सन्देह करने का कारण दिखाई नहीं देता। यह कार्य गोशालक के वास्तविक चरित्र पर प्रकाश डालता है। गोशालक का एक स्त्री के स्थान को अपना मुख्य आवास बनाना बतलाता है कि गोशालक का मतभेद सैद्धान्तिक नहीं था, किन्तु चरित्र विषयक था' और इसी कारण गोशालक महावीर से पृथक् हुआ होगा। 1. A.F.R. Hoernle, Ajīvikās, Encyclopaedia of Religion and Ethics, Vol.-I, p. 260.
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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