SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 207
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 170 जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद ____ मज्झिमनिकाय के सन्दकसुत्त में आजीवक अब्रह्मचर्यवास के अन्तर्गत आते हैं। वहां श्रमण गौतम के शिष्य आनन्द सन्दक परिव्राजक एवं उनके शिष्यों को चार प्रकार के अब्रह्मचर्यवास गिनाते हैं, उनमें एक नियतिवादी आजीवक भी है (तृतीय अब्रह्मचर्यवास) (मज्झिमनिकाय, सन्दकसुत्त, 2.2, 5 बौ.भा.वा.प्र. [440])। हो सकता है कि ये तथ्य इनके आलोचक सम्प्रदायों के हैं। तथापि इन्हें पूर्ण निराधार नहीं माना जा सकता है, क्योंकि जैन और बौद्ध दोनों ही परम्पराएँ इस बात की पुष्टि करती हैं। वस्तुतः भारतवर्ष में प्राचीनकाल में ऐसे अनेक सम्प्रदाय थे और वर्तमान में भी हैं, जो साधना तपस्या के विविध सिद्धान्तों में अपनी सुविधानुसार त्याग और भोग के विविध विकल्पों को अपनाते रहे हैं। 6. आजीवक संघ की वृद्धि के कारण ऋषिभाषित को छोड़ जैन आगमों में गोशालक का व्यक्तित्व निरूपण विकृत रूप में उजागर हुआ है, जो आजीवक मत की निम्नता व्यक्त करते हैं। भ्रष्ट चरित्र वाला व्यक्ति भी बतलाते हैं। वहीं दूसरी तरफ गोशालक को अच्युतकल्प तक पहुंचाकर, उसे एवं उसके अनुयायियों को मोक्षमार्गी बतलाकर उन्हें सम्मान भी प्रदान करते हैं। किन्तु बौद्ध त्रिपिटकों में तो गोशालक का व्यक्तित्व अत्यन्त निकृष्ट रूप में सामने आता है। भगवान बुद्ध तत्कालीन मतों एवं मत-प्रवर्तकों में आजीवक संघ और गोशालक मत को जनता के लिए सबसे अहितकर, दुःखमय और अनीतिप्रद मानते थे। वे कहते थे इस लोक में एक मिथ्यादृष्टि पुद्गल (मूर्ख मक्खली) है, जो बहुत से लोगों को धर्म से च्युत कर अधर्म की और मोड़ने वाला है। यहां तक कि बहुत से देवता एवं भले लोग भी उसके बहकावे में आ जाते हैं। उनके मत में जितने भी पूर्वकाल में अर्हत् सम्यक्सम्बुद्ध हुए हैं, वे सभी क्रियावादी हुए हैं। गोशालक उनके भी मत का खण्डन कर कहता है-यहाँ न कोई कर्म है, न कोई क्रिया है, न किसी वीर्यारम्भ की ही आवश्यकता है। बुद्ध स्वयं को क्रियावादी एवं कर्मवादी मानते हुए कहते हैं कि वह मुझे भी अतिक्रान्त कर यही कहता है-न कोई कर्म है, न कोई क्रिया, न उसके लिए किसी वीर्यारम्भ की ही आवश्यकता है। इस प्रकार जैसे भिक्षुओं! किसी नदी के मुहाने पर आया तीव्र तूफान वहां रहने वाली मछलियों के अहितकर, दुःखप्रद अनीतिप्रद होता है, वैसे ही भिक्षुओं! इस मक्खलि का यह
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy