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________________ जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद आजीवकों की भिक्षाचर्या के कुछ विशेष नियम थे- जो ग्राम आकर, सन्निवेश में जो आजीवक साधु होते हैं, जैसे-दो घरों के अंतर से तीन घर छोड़कर, सात घर छोड़कर भिक्षा लेने वाले, नियम विशेषवश भिक्षा में केवल कमल डंठल लेने वाले, प्रत्येक घर से भिक्षा लेने वाले, जब बिजली चमकती हो तब भिक्षा नहीं लेने वाले, मिट्टी से बने नाद जैसे बड़े बर्तन में प्रविष्ट होकर तप करने वाले, वे ऐसे आचार द्वारा विहार करते हुए जीवन-यापन करते हुए बहुत वर्षों तक आजीवक पर्याय का पालन कर, मृत्युकाल आने तक मरण प्राप्त कर उत्कृष्ट अच्युत कल्प में (बारहवें देवलोक में) देवरूप में उत्पन्न होते हैं ( I. औपपातिक, 158, II. अभिधान राजेन्द्रकोश, भाग 2, पृ. 116 [435])। यहां इनकी उत्कृष्ट आचार चर्या के कारण अधिकतम 12वें देवलोक तक जाने का विधान बताया है 1 168 अचेलकत्व दोनों परम्पराओं में मान्य रहा है और यही कारण था कि उस समय में प्रचलित विभिन्न श्रमण परम्पराओं में, जैसे- तापस, परिव्राजक (चरक) आदि में इन दोनों को श्रेष्ठ बताया है। जैन आगमों में ऐसा उल्लेख आता है कि तापस ज्योतिष्क देवों में, कांदर्पिक सौधर्मकल्प में, चरक परिव्राजक ब्रह्मलोक - कल्प में, किल्विषिक लान्तक - कल्प में, तिर्यंच सहस्रार - कल्प में, आजीवक व अंभियोगिक अच्युत - कल्प में, दर्शनभ्रष्ट स्वतीर्थिक (जैन मुनि वस्त्रधारी) ऊपर के ग्रैवेयक में उत्पन्न होते हैं (भगवती, 1.2.113 [436])। यहां आजीवकों का अन्य सम्प्रदायों से उच्च गति में जाने का उल्लेख है । निर्ग्रन्थों के भी उच्च गति में जाने का विधान बताया गया है। जैसे निर्ग्रन्थ परम्परा में उपासकों (श्रावकों) के विशिष्ट आचार-विचार अणुव्रतधारी बारहव्रती श्रावकों का उल्लेख मिलता है, जो इन नियमों के अन्तर्गत एक सीमा में रहते हुए अपनी क्षमता के अनुसार अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य (स्वदार - संतोष), इच्छा परिमाण, उपभोग- परिभोग दिग्व्रत परिमाणव्रत, अनर्थदण्ड विरमणव्रत, सामायिक व्रत, देशावकाशिक व्रत, पौषधोपवास तथा यथासंविभाग व्रत का पालन करते हैं। वैसे ही आजीवकोपासक के आचार नियमों में अर्हत् को देवता मानते थे, माता-पिता की शुश्रूषा करते थे । उदुम्बर, वट, पीपल, गूलर, बड़, बोर, अंजीर व पाकर - इन पांच प्रकार के 1. विशेष विवरण हेतु देखें, उपासकदशा का प्रथम अध्याय 'आनंदे' ।
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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