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________________ जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद 4. आत्मा को एक मानने पर वैयक्तिक पुरुषार्थ का कोई मूल्य नहीं रहेगा और यदि आत्मा एक ही है तो व्यक्तिगत प्रयासों / क्रियाओं द्वारा न तो उसकी मुक्ति होगी, न ही बंधन । 118 5. आत्मा को एक मानने पर नीतिगत मूल्यों का कोई स्थान नहीं रहेगा न ही दण्ड व्यवस्था अर्थपूर्ण होगी । वैयक्तिकता के अभाव में व्यक्ति का स्वविकास, उत्तरदायित्व तथा पुरुषार्थ का कोई अर्थ नहीं रह जायेगा । 6. इस प्रकार आत्मा को एक, सर्वव्यापी तथा अविकारी मानने पर सूत्रकृतांग के अनुसार जीव न मरेंगे, न संसार भ्रमण करेंगे न ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और प्रेष्य होंगे। न कीट, पक्षी और सर्प होंगे। न मनुष्य, न देवलोक (सूत्रकृतांग, II. 6. 48 [340])। सुख-दुःख मोक्ष आदि व्यवस्थाएँ घटित नहीं हो पाएंगी। अतः जगत् में सिर्फ एक ही अद्वैत आत्मा है कहना सही नहीं है । इस प्रकार जैन दृष्टि से एक आत्मा अथवा एक चैतन्य सत्ता वास्तविक नहीं है और न वह दृश्य जगत् का उपादान' भी है । अनन्त आत्माएँ हैं और प्रत्येक आत्मा इसलिए स्वतंत्र है कि उसका उपादान कोई दूसरा नहीं है | चेतना व्यक्तिगत है और प्रत्येक आत्मा का चैतन्य अपना-अपना होता है; जैसा कि सूत्रकृतांग में कहा गया है कि “किसी दूसरे का दुःख कोई दूसरा नहीं लेता । किसी दूसरे के कृत का कोई संवेदन नहीं करता । प्राणी अकेला जन्मता है, अकेला मरता है, अकेला च्युत होता है, अकेला उत्पन्न होता है, कलह अपनाअपना होता है, संज्ञा अपनी-अपनी होती है, मनन अपना-अपना होता है, विज्ञान अपना-अपना होता है, वेदना अपनी-अपनी होती है” (सूत्रकृतांग, II.1.51 [341])। एकात्मवाद के सन्दर्भ में जैन आगमों में अनेकान्त दृष्टि से जो समाधान प्रस्तुत किया गया है, वह बहुत महत्त्वपूर्ण है- जैन आगमों में आत्मा की एकता और अनेकता दोनों प्रतिपादित है, जैसा कि स्थानांग और समवायांग में कहा गया है कि आत्मा एक है ( I. स्थानांग, 1.2, II. समवायांग, 1.4 [342])। वहीं भगवती में उसे अनेक भी कहा गया है। धर्मास्तिकाय के 1. जो कार्य रूप में परिणत हो, उसे उपादान कारण कहते हैं, जैसे घट का उपादान कारण मृत्तिका (मिट्टी) है।
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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