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________________ एकात्मवाद 119 असंख्येय प्रदेश हैं। वे सब प्रतिपूर्ण, निरवशेष और एक शब्द (धर्मास्तिकाय) के द्वारा गृहीत होते हैं-गौतम! इसको धर्मास्तिकाय कहा जा सकता है। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय वक्तव्य है, केवल इतना अन्तर है-इन तीनों (आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय) के प्रदेश अनन्त होते हैं (भगवती, 2.10.134-135 [343])। भगवान् महावीर ने आत्मा की एकता और अनेकता के प्रश्न का जो दार्शनिक दृष्टि से समाधान दिया, वह द्रष्टव्य है। वे सोमिल नामक ब्राह्मण को अपना मन्तव्य स्पष्ट करते हुए कहते हैं-'हे सोमिल! द्रव्यदृष्टि से मैं एक हूँ, ज्ञान और दर्शन रूप पर्यायों की प्रधानता से मैं दो हूँ। कभी न्यूनाधिक नहीं होने वाले आत्म-प्रदेशों की दृष्टि से मैं अक्षय हूँ, अव्यय हूँ, अवस्थित हूँ। तीनों कालों में बदलते रहने वाले उपयोग स्वभाव की दृष्टि से मैं अनेक हूँ (भगवती, 18.10.220 [344])। अनुयोगद्वार में तीन प्रकार की वक्तव्यता बतलाई गई हैं1. स्वसमयवक्तव्यता-जैन दृष्टिकोण का प्रतिपादन। 2. परसमयवक्तव्यता-जैनेतर दृष्टिकोण का प्रतिपादन। 3. स्वसमय-परसमयवक्तव्यता-जैन और जैनेतर दोनों दृष्टिकोण का एक साथ प्रतिपादन (अनुयोगद्वार, 12.605 [345])। व्याख्याकार जिनदासगणिमहत्तर इस मत के स्पष्टीकरण में कहते हैं ‘एगे आया' यह पद उभयवक्तव्यता का पद है। एक ही आत्मा प्रत्येक प्राणी में प्रतिष्ठित है। वह एक होने पर भी अनेक रूप में जानी जाती है। जैसे चन्द्रमा एक है। जल से भरे हुए अनेक पात्रों में उसके स्वतन्त्र अस्तित्व की प्रतीति होती है, वैसे ही आत्मा एक होने पर भी अनेक रूपों में दिखाई देती है। इस सूत्र की जैन और वेदान्त-दोनों दृष्टियों से व्याख्या की गई। जैन मन्तव्य के अनुसार उपयोग (चेतना व्यापार) सब आत्मा का सदृश लक्षण है। अतः उपयोग चेतना व्यापार की दृष्टि से आत्मा एक है। वही वेदान्त दृष्टि के अनुसार आत्मा या ब्रह्म एक है (अनुयोगद्वारचूर्णि, पृ. 86 [346])। इसी प्रकार जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण (6ठी-गवीं ई. शताब्दी) ने कहा है-सुख-दुःख, जन्म-मरण, बन्धन-मुक्ति आदि के सही समाधान के लिए अनेक
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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