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________________ एकात्मवाद 117 संक्षेप में कह सकते हैं कि उपनिषद् परम्परा में विश्व के मूल में किसी एक ही वस्तु की सत्ता को स्वीकार किया है, अनेक वस्तुओं की सत्ता नहीं। वहां उसे सत्, असत्, आकाश, जल, वायु, मन, प्रज्ञा, आत्मा, ब्रह्म आदि नामों से प्रकट किया गया किन्तु विश्व के मूल में अनेक तत्त्वों के सिद्धान्त को प्रश्रय नहीं मिला और अद्वैत चेतन अथवा ब्रह्म तत्त्व को स्वीकार कर अपनी प्रमुखता स्थापित की। किन्तु वेदान्त दर्शन के अतिरिक्त किसी भी अन्य भारतीय दर्शनों में अद्वैत आत्म सिद्धान्त को स्थान नहीं मिला । अतः मान सकते हैं कि उपनिषदों के पूर्व की परम्परा का अनुपलब्ध (अवैदिक) साहित्य में भी संभवतः अद्वैत सिद्धान्त का कोई स्थान नहीं था । किन्तु अद्वैत विरोधी परम्परा का अस्तित्व अति प्राचीन काल से ही था । 6. एकात्मवाद की जैन दृष्टि से समीक्षा जैनसूत्रों में इस मत की समीक्षा में कहा गया है कि एकात्मवाद की कल्पना युक्तिरहित है, क्योंकि यह अनुभव से सिद्ध है कि सावद्य अनुष्ठान करने में जो आसक्त है, वे ही पाप कर्म करके स्वयं नरकादि के दुःखों को भोगते हैं, दूसरे नहीं (सूत्रकृतांग, I.1.1.10 [339 ] ) । अतः आत्मा एक नहीं है, बल्कि अनेक है। -x 1. एकात्मवाद सिद्धान्त के अनुसार आत्मा को एक मानने पर सभी जीवों की मुक्ति और बंधन एक साथ होंगे। इस प्रकार की व्यवस्था से जो जीव मुक्त 'चुका है, वह बंधन में पड़ जाएगा और जो बंधन में पड़ा है, वह मुक्त हो जाएगा। इस प्रकार बंधन और मोक्ष की व्यवस्था गड़बड़ा जाएगी। साथ ही हर प्राणी की जीवन की हर अवस्थाएं भी एक आत्मा होने के कारण एक जैसी होंगी, लेकिन व्यावहारिक जीवन में ऐसा दृष्टिगोचर नहीं होता । अतः आत्मा एक नहीं, अनेक हैं । 2. प्रत्येक प्राणी का आध्यात्मिक, बौद्धिक एवं दार्शनिक विकास भी अपने-अपने स्तर का होता है किन्तु एकात्मवाद सिद्धान्त के अनुसार यह बात घटित नहीं होती । 3. एक आत्मा के द्वारा किये गए शुभ व अशुभ कर्म का फल दूसरे सभी को भोगना पड़ेगा जो कि युक्तिसंगत नहीं है ।
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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