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________________ एकात्मवाद 101 जीव का लक्षण उपयोग बतलाया गया है अर्थात् बोधरूप व्यापार चेतना की प्रवृत्ति, (I. भगवती, 2.10.137, II. उत्तराध्ययन, 28.10, III. तत्त्वार्थसूत्र, 2.8 [283]) और जीव को अनेक शक्तियों का पुंज कहा गया है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग-ये आत्मा की मुख्य शक्तियां हैं (उत्तराध्ययन, 28.11 [284])। इनको दो भागों में बांटा जा सकता है-1. वीर्य 2. उपयोग। ज्ञान और दर्शन का उपयोग में समावेश हो जाता है और चारित्र और तप का वीर्य में। ज्ञान के अनन्त पर्याय हैं। ज्ञेय के अनुसार ज्ञान के पर्याय का परिवर्तन होता रहता है, इसलिए उपयोग चेतनारूप व्यापार जीव का लक्षण बनता है। ___परिणामी नित्य-भगवान् महावीर ने जीव को अपेक्षा भेद से शाश्वत और अशाश्वत दोनों कहा है। भगवती में इसकी स्पष्टता का संवाद मिलता है। गौतम भगवान से प्रश्न करते हैं-भंते! जीव शाश्वत है या अशाश्वत? भगवान् गौतम को उत्तर देते हुए कहते हैं-जीव शाश्वत भी है और अशाश्वत भी। द्रव्य की अपेक्षा से वह शाश्वत है अर्थात् नित्य है और भाव की अपेक्षा से अशाश्वत अर्थात् अनित्य है (भगवती, 7.2.58-59 [285])। इसमें शाश्वतवाद और उच्छेदवाद दोनों का समन्वय हुआ है। चेतन जीव द्रव्य का विच्छेद कभी नहीं होता। इस दृष्टि से जीव को नित्य मानकर शाश्वतवाद को प्रश्रय दिया है और जीव की नाना अवस्थाएँ, जो स्पष्ट रूप से परिवर्तित होती हुई देखी जाती हैं, उसकी अपेक्षा से उच्छेदवाद को प्रश्रय दिया गया। भगवान महावीर ने कहा है कि जीव की ये अवस्थाएँ अस्थिर हैं, अतः उनका परिवर्तन होता है, किन्तु चेतन द्रव्य शाश्वत स्थिर है। जीवगत बाल्यावस्था, कुमारावस्था, पांडित्यादि अस्थिर धर्मों का परिवर्तन होगा, जबकि जीव द्रव्य तो शाश्वत ही रहेगा (भगवती, 1.9.440 [286])। द्रव्यार्थिक नय का दूसरा नाम-अव्युच्छित्ति नय है और भावार्थिक नय का दूसरा नाम व्युच्छित्तिनय है। इससे भी यही फलित होता है कि द्रव्य अविच्छिन्न ध्रुव शाश्वत होता है और पर्याय का विच्छेद नाश होता है अतएव वह अध्रुव, अनित्य, अशाश्वत है। जैसे जीव द्रव्य को शाश्वत और अशाश्वत बताया है इसी प्रकार जीव के नारक वैमानिक आदि विभिन्न पर्यायों को भी शाश्वत और अशाश्वत बताया है। जैसे जीव द्रव्य द्रव्यापेक्षा से नित्य कहा है, वैसे ही नारक को भी जीव द्रव्य की अपेक्षा से नित्य कहा है। और जैसे जीव द्रव्य को नारकादि पर्याय की अपेक्षा से अनित्य कहा है,
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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