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________________ जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद वैसे ही नारक जीव को भी नारकत्व रूप पर्याय की अपेक्षा से अनित्य कहा है ( भगवती, 7.3.93-94 [287])। 102 जीव की शाश्वतता का जो स्पष्टीकरण भगवती में भगवान् महावीर द्वारा जमाली के साथ हुए प्रश्नोत्तरों में हुआ है, उससे नित्यता - अनित्यता से क्या मतलब है - यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है । भगवान जमाली से कहते हैं- “तीन कालों में ऐसा कोई समय नहीं जबकि जीव न हो। इसलिए जीव शाश्वत, ध्रुव एवं नित्य कहा जाता है किन्तु जीव नारक से मिटकर तिर्यंच होता है और तिर्यंच से मिटकर मनुष्य होता है । इस प्रकार जीव क्रमशः नाना अवस्थाओं को प्राप्त करता है । अतएव इन अवस्थाओं की अपेक्षा जीव अनित्य, अशाश्वत, अध्रुव है अर्थात् अवस्थाओं के नानात्व रहने पर भी जीवत्व कभी लुप्त नहीं होता पर जीव की अवस्थाएँ लुप्त होती रहती हैं। इसलिए जीव शाश्वत और अशाश्वत दोनों हैं (भगवती, 9.33.233 [288])। उत्तराध्ययन का यह सूक्त जीव का कभी नाश नहीं होता । आत्मा की शाश्वतता की सिद्धि का प्रतीक सूत्र है ( उत्तराध्ययन, 2.27 [289])। वस्तुतः आत्मा न तो कभी अनात्मा (जड़) से उत्पन्न होती है और न किसी भी अवस्था में अपना चेतन लक्षण को छोड़कर जड़ बनती है। इसी दृष्टि से उसे नित्य कहा जाता है। लेकिन आत्मा की मानसिक अवस्थाएँ परिवर्तित होती रहती हैं, अतः इस अपेक्षा से उसे अनित्य कहा गया है। 1 आत्मा अमूर्त है - आत्मा स्वभाव से अमूर्त है। अमूर्त अर्थात् जिसमें रूप, रस, गंध और स्पर्श-ये पुद्गल लक्षण नहीं पाये जाते । आत्मा के अमूर्त स्वरूप का विवेचन आचारांगसूत्र में विस्तार से मिलता है । इसके भाष्य में कहा गया है कि मेरा वह आगति और गति - इन दोनों को जानने वाला' पुरुष न किसी के द्वारा छेदा जाता है, न जलाया जाता है, न मारा जाता है ( आचारांगसूत्र, I.3.3.58 [290] ) । जैसा कि गीताकार भी कहते हैं कि ऐसा वह पुरुष जो लोक में किसी के द्वारा न छेदा जाता है, न भेदा 1. विरागस्य आलम्बनमस्ति आगतेर्गतेश्च परिज्ञानम् ( आचारांगभाष्यम्, पृ. 185), अर्थात् विराग का आलम्बन है आगति और गति का ज्ञान ।
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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